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Malini Awasthi: सइयां म‍िले लरकइयां... गाते हुए लोकगायिका मालिनी अवस्‍थी ने क्‍यों कहा- आज की लड़क‍ियों में वो बात नहीं

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गांधी मैदान में चल रहे पुस्तक मेले में आयोजित जागरण सान्निध्य में लोकगायिका मालिनी अवस्थी श्रोताओं से बातचीत करते फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम। जागरण



जागरण संवाददाता, पटना। लेह, जहां वर्ष में 9 माह बर्फ जमी रहती है, वहां छह माह काम कर देश की सबसे ऊंची सड़क बनाने वाले मजदूरों की वजह से ही शाइनिंग इंडिया साकार हो रहा है। देश ने सदा ही गृहत्यागियों का सम्मान किया। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

घर छोड़कर भी उससे जुड़े रहना, बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश के इन मजदूरों से सीखना चाहिए। वे लाेग आधुनिक विश्वकर्मा हैं। इसकी कीमत उस विरहन के आंसू हैं, जो उन्हें इतनी दूर भेजते हैं, उनकी याद में तड़पते रहते हैं। जो इन दृश्यों-परिस्थितियों के भाव का अनुभव कर लेगा, उसके गानों में असर नहीं हो, यह हो ही नहीं सकता।
संस्‍कृत ने दी भारत को समझने की दृष्‍ट‍ि

यदि मैंने संस्कृत नहीं पढ़ी होती भारत की वह दृष्टि नहीं देख-समझ पाती। ये बातें रविवार को पुस्तक मेला में दैनिक जागरण द्वारा आयोजित हिंदी हैं हम सान्निध्य कार्यक्रम में पद्मश्री से अलंकृत मालिनी अवस्थी ने अपनी किताब चंदन किवाड़ के बारे में फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम से बातचीत में कहीं।

उन्होंने लोकगीतों की रिमझिम बौछारों के बीच बड़ी संख्या में पहुंचे श्रोताओं को अपनी सांस्कृतिक यात्रा और देश की विरासत से सराबोर कर दिया। इस क्रम में उन्होंने बताया कि कोई रचना बनती कैसे हैं?

इस क्रम में उन्होंने बताया कि लोकगीतों का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि महात्मा गांधी और महामना पंडित मदनमोहन मालवीय के आग्रह पर पहली पर पंडित रामनरेश त्रिपाठी ने लोकगीतों का संकलन शुरू किया था।

महात्मा गांधी की इच्छा थी कि लोक कलाकार अपने गीतों से एक संदेश भी दें। यही कारण है कि पंडित रामनरेश त्रिपाठी के इस संकलन की प्रस्तावना इन्हीं दोनों महापुरुषों ने लिखी थी जिससे जन-जन को एकसूत्र में पिरोया जा सके।

मालिनी अवस्थी ने कहा कि तमाम लोगों में अद्भुत क्षमता थी लेकिन कला के प्रति प्रतिबद्धता पागलपन के स्तर तक नहीं थी। यही कारण है कि एक गुरु से साथ सीखने वालों में एक पद्म विभूषण हो गए जबकि दूसरे गांव में ही रह गए।

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(मालिनी अवस्थी को पुस्तक भेंट करते दैनिक जागरण के मुख्य महाप्रबंधक आनंद त्रिपाठी। जागरण)
लोकगीतों से गूंजता रहा परिसर

इसी बीच माॅरीशस में भोजपुरी लोकगीत को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया, सरिता बुद्धू भी मंच पर मालिनी अवस्थी से मिलने आईं। दोनों ने मिलकर पतली कमरिया डोलत है तो डोलन दें, कानों के ईयरिंग गिरते हैं तो गिरें, कमर डोलन दे गीत साथ में गुनगुनाया।

इसी क्रम में सेजिया पर लाेटे काला नाम, हो कचौरी गली सूनी कई बलमू, सूनी कईल बलमू, मिर्जापुर किए गुलजार गीत से वाराणसी के चौक का महात्म्य समझाया।

जहां एक ओर दालमंडी, दूसरी ओर मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताएं, तीसरी ओर काशी विश्वनाथ मंदिर और चौथी ओर सराफा बाजार यानी धर्म,अर्थ, काम व मोक्ष का संदेश देते हैं। उन्होंने कहा कि बिहार की श्रमगीत सामाजिक समरसता के प्रतीक थे लोक संस्कृति में, हम उस समाज में कहां से आ गए जहां जाति का नाम लेने पर कानूनी कार्रवाई हो जाती है।

महिलाओं ने अपनी बात कहने की अद्भुत क्षमता


मालिनी अवस्थी ने सैंया से दिल मिलतै नाहीं, कैसे अटारी आऊं..., सैंया पड़ोसन के साथ सुनो रे गुइंया , जब पड़ोसन की हो गईं तेरहवीं सैंया फिर हमारे साथ गुइंया---, राजा गर्मी के मारे भीजै चुनरिया हमारी----, सैंया मिले लरकैयां, मेरी बाली उमरिया, 12 बरस मैं व्याह के आई गुइंया, सैंया चलें पईया-पईया मै क्या करूं जैसे गीतों की प्रस्तुति दी।

कहा कि पहले की महिलाओं में जितनी स्पष्टता से अपनी बात कहने की क्षमता थी, वह आज की लड़कियों में नहीं है। इसका सबसे बड़ा मंच था, विवाह के दौरान होने वाला नकटौरा या रतजगा, जिसमें सास, बहू, ननद, छोटी-बड़ी सभी रिश्तों से ऊपर उठकर महिला के रूप में बैठती थीं और गायन, नृत्य नाटक के माध्यम से अपनी बातें कहती थीं।

सारी बातें निकल जाने से उनका तनाव निकल जाता था, और दूसरे उसका मतलब भी समझ जाते थे। नकटौरा, महिला मीडिया का सशक्त माध्यम था। नकटौरा व बुलऊवा की परंपरा जो बंद हो गई है, उसे दोबारा शुरू किया जाना चाहिए लेकिन मंच नहीं बनवाएं। परंपरागत रूप में जैसे होता था, एक कमरे में सब महिलाएं घेर कर बैठतीं थीं, ढोलक-मजीरा बिल्कुल पास होता था, वैसा ही रहे।
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