क्या सचमुच घर के खाने में कम हो गया हो गया है पोषण? रोटी-चावल हैं इसके जिम्मेदार या कुछ और है बात

cy520520 2025-12-1 17:38:27 views 543
  

कैसी होनी चाहिए हेल्दी थाली? (Picture Courtesy: Freepik)



लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। बड़े शहरों में नौकरी करने आए युवाओं को जो एक बात सबसे ज्यादा सालती है, वो है घर का खाना। यह सिर्फ खाने की थाली नहीं, बल्कि यादों की तिजोरी है। जिसको हर कोई अपने दिल से लगाकर रखता है। दो पीढ़ियों के बीच का अंतर इस बिंदु पर आकर दूर हो जाता है।  विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

पीढ़ियों से, ‘घर का खाना’ भारतीयों के लिए सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि आराम, पोषण और संतुलन का पर्याय रहा है। यह हमारे जीवन का आधार रहा है। मगर भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) की हालिया रिपोर्ट ने चौंकाने वाला तथ्य पेश किया। इसके अनुसार औसत भारतीय की लगभग 62 प्रतिशत कैलोरी अब चावल, गेहूं और चीनी से आती है।  

विशेषज्ञों का मानना है कि घरेलू खाने में कार्बोहाइड्रेट की अधिकता वाला यह पैटर्न डायबिटीज और मोटापे जैसे मेटाबालिक विकारों को बढ़ा रहा है। आराम, पोषण और संतुलन का प्रतीक ‘घर का खाना’ आज सवालों के घेरे में है, लेकिन क्या वाकई दोष हमारे पारंपरिक भोजन का है, या दोषी है कोई और?
वो तो है निर्दोष

इससे पहले कि हम अपनी प्रिय रोटी और चावल को दोषी ठहराना शुरू करें, हमें एक सवाल पूछना चाहिए: क्या भारतीय भोजन वास्तव में अस्वास्थ्यकर हो गया है या दोष किसी और बिंदु पर है और नजर उतनी गहराई तक नहीं पहुंच पा रही।  

सच्चाई यह है कि ये आंकड़े मात्रा को तो माप रहे हैं, मगर गुणवत्ता की कोई बात नहीं कर रहा। अन्न को उगाने, संसाधित करने और उपभोग करने के तरीके में जो 360 डिग्री बदलाव आया है, उसकी तो चर्चा तक नहीं हो रही। असल में हम आज अपने आहार को पश्चिमी चश्मे से देख रहे हैं, जहां कार्बोहाइड्रेट को खलनायक और वसा को दुश्मन माना जाता है।  

देखा जाए तो हमारे पूर्वजों की थाली बहुत अलग थी। उनकी  थाली में खपली गेहूं, उकड़ा व जंगली चावल, हाथ से कूटे गए ज्वार, बाजरा, और रागी जैसे साबुत और अपरिष्कृत अनाज थे। भोजन में देसी घी की उचित मात्रा थी। दाल, सब्जियों से भरपूर इस थाली में पारंपरिक अचार, पापड़, सलाद संतुलन बनाते थे। भोजन प्रकृति के साथ तालमेल में बनता था। जैसी प्रकृति की लय, वैसी ही थाली रहती थी।  

हमारे पूर्वजों को पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और अंतरिक्ष के पंच तत्वों का ज्ञान था। हर भोजन अपनी ऋतु के अनुकूल ऊर्जा प्रदान करता था। सर्दियों में गर्माहट के लिए बाजरे की रोटी, घी और गोंद के लड्डू आदि होते थे तो वहीं गर्मियों में ठंडक और हाइड्रेशन के लिए लौकी, छाछ और मट्ठा प्रधान रहते थे। इसी तरह मानसून में इम्युनिटी के लिए मूंग की खिचड़ी और हल्दी का काढ़ा साथी बन जाते। जब हम मौसमी और स्थानीय खाते थे, तो हम समझदारी से खाते थे। पर्यावरण हमारे भोजन में ऊर्जा भरता था, जिसमें उत्साह और जीवन शक्ति होती थी।  
ये हैं घुसपैठिए

आज, वह समझदारी धूमिल हो गई है। आज कोल्ड स्टोरेज में भरी हुई सब्जियां बेमौसम भी उपलब्ध हैं, मगर उनमें पोषण नदारद! इसलिए समस्या रोटी या चावल में नहीं है। समस्या अत्यधिक शोधन करने में है। जब हम अनाज को साफ करने के नाम पर उसका पोषण तक उतार फेकते हैं, चावल को उजला दिखाने के नाम पर पालिश करते हैं और रिफाइंड या विभिन्न प्रकार के हल्के-पतले तेल में ही भोजन पकाना पसंद करते हैं, तो इस प्रकार हम खुद ही अपने भोजन की पौष्टिकता को खत्म कर देते हैं।  

संकर फसलें, रसायन से भरती जा रही मिट्टी और अत्यधिक परिष्कृत सामग्री ने हमारे भोजन के प्राकृतिक संतुलन को डांवाडोल कर दिया है। जो कभी ऊर्जा का स्रोत था, वह अब थकावट लाता है। हम मौसम की ऊर्जा को सेहत में सहेजने के बजाय बस पेट भरने की ओर बढ़ गए हैं।  

आज हम बिना जाने बेकरी ब्रेड, रेडी टू ईट ग्रेवी, बीजों से बने परिष्कृत तेल और चीनी-युक्त मिठाइयों पर निर्भर हो रहे हैं- जो मुख्य घुसपैठिए हैं। एक गतिहीन जीवनशैली, देर रात तक जागना और अनियमित भोजन भी इस असंतुलन में बराबर का साथी है। कार्बोहाइड्रेट तब अपराधी नहीं थे, जब लोग धूप के साथ चलते थे और हाथों से मेहनत भरे काम करते थे। समस्या तब शुरू हुई जब शोधन बढ़ा और शारीरिक गतिविधियां कम हो गईं!
दोहराएं अपनी परंपराएं

इस समस्या का समाधान परंपरा को छोड़ने में नहीं, बल्कि उसे बहाल करने में है। भारतीय थाली को नए सिरे से बनाने की नहीं, बल्कि दोहराने की जरूरत है।
1. थाली में शामिल करें अपने अनाज

खपली गेहूं, ज्वार, रागी, संवा चावल, कंगनी, बिना पॉलिश वाली दालें व चावल को वापस लाएं। इनके फाइबर, प्रोटीन और माइक्रोन्यूट्रिएंट्स परिष्कृत किस्मों से कहीं अधिक हैं।
2. मौसम के हिसाब से पकाएं

अपनी जलवायु के अनुकूल सामग्री चुनें। सर्दियों में गर्म, भारी खाद्य पदार्थ और गर्मियों में ठंडे, पानी से भरपूर खाद्य पदार्थ का सेवन करें।
3. ताजा लाएं, तुरंत पकाएं

हर फल-सब्जी स्थानीय रूप से खरीदें, ताजा पकाएं और तुरंत खाएं। बेमौसम सब्जी को पूरी तरह नकार दें।  
4. पारंपरिक वसा है लाभदायक

कोल्ड-प्रेस्ड सरसों, नारियल और तिल का तेल या घी क्षेत्रीय रूप से उपयुक्त और तापीय रूप से स्थिर होते हैं। रिफाइंड बीज तेल अपनी जीवन शक्ति खो चुके होते हैं।
5. लय और विश्राम का करें पालन

सूरज के साथ खाएं। हर मील का तय पोर्शन और खाने के बीच विराम शरीर की जैविक घड़ी को बहाल करता है, जिसका हमारी दादी-नानी सहज रूप से अभ्यास करती थीं।
हमारी मिट्टी है संपन्न

जब भोजन को देखभाल से उगाया जाता है, ध्यान से पकाया जाता है और कृतज्ञता के साथ खाया जाता है, तो यह शरीर और चेतना दोनों को पोषण देता है। भारत के पास अनाज, दालों, मसालों और खाना पकाने की तकनीकों की अद्वितीय विविधता है। आज भी, हमारे बाजार श्रीअन्न, संवा चावल, खपली गेहूं, गुड़, कोल्ड-प्रेस्ड तेल और देसी सब्जियों से भरे हैं।  

हमें आयातित ‘सुपरफूड्स’ की आवश्यकता ही नहीं है। हमारे पास वे पहले से ही अपनी मिट्टी में निहित हैं और हमारी सेहत के अनुकूल हैं। चावल, रोटी, दाल - इनमें से कोई भी दुश्मन नहीं है। दुश्मन तो बस इनकी वास्तविकता से होती आ रही दूरी है।

जब हम अपने अनाजों के प्राचीन अवतारों को अपना लेंगे, मौसम के साथ खाएंगे, अपनी रसोई में समझदारी के साथ खाना बनाएंगे और अपनी मिट्टी का सम्मान करेंगे तो हमारा भोजन अपने मूल को फिर से प्राप्त कर लेगा। क्योंकि सच्चा पोषण कैलोरी की गिनती में नहीं है। यह खेत और लोक, धरती और खाने वाले तथा भोजन और हमारे भीतर पैदा होने वाले उत्साह के बीच का संबंध है। जब यह संबंध दोबारा जीवंत हो जाएगा, तो देश की थाली एक बार फिर वैसी होगी, जो वह हमेशा से थी-स्वास्थ्य, सद्भाव और समग्रता से संपन्न।

तो, दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ!

(लेखक फिट इंडिया मूवमेंट के ब्रांड एंबेसडर हैं) यह भी पढ़ें-  

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