पूर्व राजनयिक पंकज सरन। (जागरण)
रुमनी घोष। भू-राजनीतिक परिस्थितियों के लिहाज से साल 2025, दुनिया के साथ-साथ भारत के लिए भी उथल-पुथल भरा रहा। पुराने रिश्तों में दरार पड़ी, वहीं जिनसे बरसों से दूरी थी, वह पास आ गए। दिसंबर के पहले सप्ताह में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के भारत दौरे के बाद नए वर्ल्ड ऑर्डर के बदलने को लेकर चर्चा और तेज हो गई है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
इस पूरे घटनाक्रम के बीच भारत की स्थिति की व्याख्या करते हुए पूर्व राजनयिक और उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे पंकज सरन दावा करते हैं कि नए साल में नया वर्ल्ड आर्डर (नई विश्व व्यवस्था) दिखेगा। यूक्रेन 2026 में अपनी ओर से युद्ध जारी नहीं रख पाएगा और शक्ति संतुलन की नई तस्वीर साफ हो जाएगी। भारत के लिए इसे संक्रमण काल ठहराते हुए वह कहते हैं कि हमें संभलकर आगे बढ़ना होगा।
सरन रूस में भारतीय राजदूत रह चुके हैं। 2015 में जब वह बांग्लादेश में भारतीय उच्चायुक्त थे, उस समय ऐतिहासिक भारत-बांग्लादेश भूमि सीमा समझौते को संसद द्वारा अनुमोदित किया गया था। विदेश मंत्रालय में नेपाल और भूटान से संबंधित उत्तरी प्रभाग के प्रमुख के रूप में भी पदस्थ रहे। वर्ष 2018 से 2021 तक उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अधीन रणनीतिक मामलों के लिए उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में कार्य किया, जहां उन्होंने समुद्री सुरक्षा, पड़ोस नीति और प्रौद्योगिकी तथा आर्थिक सुरक्षा सहित क्षेत्रीय और वैश्विक रणनीति निर्माण का कार्यभार संभाला।
वर्तमान में वह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य हैं। दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे बदलती परिस्थितियों में भारत की विदेश नीति और सुरक्षा नीति दोनों पर विस्तार से चर्चा की। प्रस्तुत हैं बातचीत के मुख्य अंश:
क्या वर्ल्ड ऑर्डर बदल रहा है?
यह सही है कि नया वर्ल्ड ऑर्डर (नई विश्व व्यवस्था) बन रहा है। नए साल में यानी वर्ष 2026 में यूक्रेन युद्ध जारी नहीं रख पाएगा। बीते चार सालों में अब रूस भारी पड़ता हुआ नजर आ रहा है। यूक्रेन, रूस के सैन्य ताकत को संभाल नहीं पा रहा है। युद्ध थमते ही वर्ल्ड ऑर्डर की नई तस्वीर साफ होने लगेगी।
क्या रूस के राष्ट्रपति पुतिन के भारत दौरे से वर्ल्ड ऑर्डर बदलने का कोई संबंध है? क्या यह ट्रिगर प्वाइंट था?
राष्ट्रपति पुतिन का भारत दौरा बहुत ही महत्वपूर्ण समय पर हुआ है। दुनिया की नजरें इस दौरे पर टिकी हुई थीं। आने वाले समय में यह बहुत सी नीतियों पर असर भी डालेगा, लेकिन इस दौरे से वर्ल्ड आर्डर बदलने की शुरुआत हुई है या फिर यह दौरा वर्ल्ड आर्डर बदल देगा, यह कहना सटीक नहीं होगा। इस मामले में हमें यथार्थवादी (रियलिस्टिक) होना होगा। यह सही है कि भारत और रूस दो शक्तियां हैं, लेकिन हमारी सीमाएं हैं।
वर्ल्ड ऑर्डर बदलने में भारत की फिलहाल कोई सीधी भूमिका नहीं है। जहां तक भारत और रूस के बीच रिश्ते की बात करें तो बीते 25 साल से दोनों देशों के बीच सालाना समिट होता आ रहा है। इस बार का दौरा भी उसी क्रम में रहा। वर्तमान परिस्थितियों में यह अति महत्वपूर्ण इसलिए रहा कि राष्ट्रपति पुतिन चार साल बाद भारत आए। भारत ने उनके दौरे को स्टेट विजिट का सम्मान दिया। यह वर्किंग विजिट नहीं थी।
स्टेट विजिट और वर्किंग विजिट में क्या अंतर है? इस दौरे से विश्व को क्या संदेश गया है?
स्टेट विजिट खास मेहमानों को दी जाती है। इसका कूटनीतिक अर्थ यह होता है कि हमने संबंधित देश के शीर्ष प्रतिनिधि के साथ-साथ उस देश को भी सम्मान दिया है। इसमें राष्ट्रपति संबंधित देश के प्रतिनिधि के लिए विशेष रात्रिभोज देते हैं। अन्य प्रोटोकाल का भी पालन किया जाता है। जैसा राष्ट्रपति पुतिन के दौरे के समय हमने देखा। वर्किंग विजिट में ऐसा नहीं होता है। इसके जरिये हमने दुनिया को संकेत दिया कि भारत-रूस के बीच रिश्ते कितने प्रगाढ़ हैं और आगे भी रहेंगे।
क्या यह मान लिया जाए कि वर्ल्ड ऑर्डर के शीर्ष स्थान से अमेरिका फिसल रहा है और रूस-चीन और भारत गठजोड़ उभर रहा है?
नहीं, इसे इस तरह से सीधे देखना सही नहीं होगा। मैंने आपको पहले ही बताया कि भारत सहित दुनियाभर के जियोपालिटिकल एक्सपर्ट्स, यानी भू-राजनीतिक विशेषज्ञों का अनुमान है कि 2026 की पहली तिमाही या छमाही तक यूक्रेन युद्ध खत्म हो जाएगा। यूक्रेन अपने दम पर इस युद्ध को आगे नहीं खींच पाएगा।
अब यूक्रेन युद्ध का वर्ल्ड आर्डर से क्या संबंध है, यह जानने के लिए आपको अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के उस बयान पर गौर करना होगा, जिसमें वह बार-बार कह रहे हैं कि रूस और यूक्रेन युद्ध शुरू ही नहीं होना चाहिए था। वह इस युद्ध के पक्ष में नहीं हैं और आगे युद्ध के लिए यूक्रेन की मदद नहीं करेंगे। युद्ध खत्म करने के लिए ट्रंप और पुतिन के बीच समय-समय पर संवाद हो रहे हैं। अलास्का में हुई दोनों की मुलाकात इसका अहम पड़ाव था। उधर, यूरोप अभी भी यूक्रेन के पक्ष में खड़ा है। इसकी वजह से अमेरिका और यूरोप के बीच दूरियां बढ़ रही हैं। इससे ट्रांस-अटलांटिक अलायंस टूटने की कगार पर है। यह अलायंस 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैश्वक पटल पर उभरा था।
ट्रांस अटलांटिक अलायंस अमेरिका और यूरोप के बीच के राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य संबंधों को संदर्भित करता है। इसका आधार नाटो है। यानी आसान भाषा में कहें तो इस अलायंस के जरिये मुख्य रूप से यूरोपीय देशों की सुरक्षा की जिम्मेदारी अमेरिका पर है। अब ट्रंप ने यूरोप को अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद उठाने के संकेत दे दिए हैं। इसके लिए उन्होंने यूरोप को रक्षा बजट में बढ़ोतरी करने की सलाह देते हुए इसे दो से पांच प्रतिशत करने की सलाह दी है।
एक आम धारणा है कि डोनल्ड ट्रंप तो अपना रुख समय-समय पर बदलते रहते हैं। फिर उनके इस बयान को इतनी गंभीरता से क्यों लिया जा रहा है? इसे बदलाव की मुख्य वजह क्यों माना जा रहा है?
अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा यूएस नेशनल सिक्यूरिटी स्ट्रैटेजी रिपोर्ट (अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति) जारी किया जाता है। हाल ही में यह रिपोर्ट जारी हुई है, जिसमें ट्रंप की नीतियों और बीते नौ महीने में घटी घटनाओं का उल्लेख है। रिपोर्ट में रूस-यूक्रेन युद्ध, अमेरिका के साथ यूरोप के बदलते कूटनीतिक रिश्ते सहित अन्य मामलों का विस्तार से उल्लेख है। एक तरह से यह नीतियों का वह दस्तावेज है, जिसके आधार पर ट्रंप अमेरिका को आगे ले जाना चाहते हैं।
मेक अमेरिका ग्रेट अगेन (मागा) मुहिम चलाकर सत्ता में आए राष्ट्रपति ट्रंप का मानना है कि अमेरिका को अनावश्यक खर्च कम करना चाहिए। दूसरे देशों का बोझ उठाने के बजाय खुद की अर्थव्यवस्था को मजबूत करना चाहिए। इस वजह से ही अमेरिका-यूरोप के बीच पुराना गठजोड़ टूटने की कगार तक पहुंच गया है और यही वर्ल्ड आर्डर को बदलने में सहायक होगा।
क्या इससे अमेरिका की हेजेमोनी (नायकत्व या वर्चस्व) खत्म नहीं हो जाएगी? यदि ऐसा होता है इसका फायदा किसे मिलेगा?
अमेरिका में विपक्ष यही मुद्दा तो उठा रहा है। उनका कहना है ट्रंप की नीतियों की वजह से अमेरिका एक तरह से अपनी वैश्विक छवि को खो रहा है। अपनी भूमिका से पीछे हट रहा है। विशेषज्ञ और विपक्ष दोनों यह चिंता जता रहे हैं कि इसका फायदा चीन को मिलेगा। हालांकि ट्रंप की नीति और उनके समर्थक दोनों ही इससे सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि अमेरिका को नायकत्व की पदवी के लिए दूसरों का बोझ उठाने के बजाय अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने पर ध्यान देना चाहिए। अनावश्यक खर्च को बंद करना चाहिए। इससे ही अमेरिका अपनी ऊंचाई पा सकेगा।
तो नया वर्ल्ड आर्डर किस तरह का होगा? दुनिया के किस हिस्से में बदलाव नजर आएगा?
यह दो तरह से बनता हुआ नजर आ रहा है। एक अमेरिका-रूस और दूसरा, अमेरिका-चीन। हालांकि तस्वीर अभी स्पष्ट नहीं है कि दोनों में से कौन सा गठजोड़ उभरकर सामने आएगा। पिछले कुछ महीनों से चले आ रहे ट्रेंड को देखेंगे तो अमेरिका और रूस के बीच दुश्मनी कम होती नजर आ रही है। दोस्ती या यूं कहें कि पार्टनरशिप पनप रही है। दूसरी ओर अमेरिका, चीन से भी अपने संबंध सुधार रहा है।
पिछले हफ्ते ही ट्रंप और जिनपिंग की मुलाकात हुई। यह दोनों ही स्ट्रैटेजिक एनिमी यानी रणनीतिक दुश्मन हैं और अमेरिका दोनों से ही रिश्ते सुधारने में लगा हुआ है। अगर यह प्रयोग सफल होता है तो दुनिया में जबर्दस्त जियोपालिटिकल डेवलपमेंट होगा। इसका असर दुनियाभर के देशों के आपसी रिश्तों पर भी पड़ेगा। भारत भी इसमें शामिल है।
कूटनीतिक और सुरक्षा दोनों की दृष्टि से भारत के लिए यह स्थिति कैसी है? भारत की रणनीति क्या होनी चाहिए?
चुनौतीपूर्ण...। खासतौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर। भारत को बहुत सतर्कता के साथ सारी स्थितियों का विश्लेषण करना होगा। हर देश के साथ अलग नीति बनाकर संतुलन स्थापित करना होगा। इस पर भारत को बहुत सतर्क और पैनी नजर रखनी होगी।
नए वर्ल्ड ऑर्डर में रूस-चीन-भारत गठबंधन की संभावना क्यों नहीं है? यदि ऐसा होता है तो क्या इससे दुनियाभर में एशिया का वर्चस्व बढ़ेगा?
यह सही है कि तीनों देशों के शीर्ष नेताओं ने मुलाकात की। तीनों के बीच व्यापार सहित कई मुद्दों को लेकर बातचीत भी हुई, लेकिन इस रिश्ते को आगे बढ़ाकर कहां तक ले जाना है, इसको लेकर भारत में ही अभी तक पूर्ण सहमति नहीं है। दरअसल, चीन के साथ हमारे संबंध खराब रहे हैं। हमारे बीच युद्ध हुए हैं। कई हिस्सों में सीमा विवाद अभी भी अनसुलझे हुए हैं। चीन की विस्तारवादी नीतियों की पीड़ा भारत ने झेली है। पुराने अनुभवों की वजह से हमारे लिए चीन पर भरोसा कर पाना मुश्किल है।
एक अवधारणा यह भी बताई जा रही है, जिसमें सभी देश अपने-अपने हिस्से में वर्चस्व कायम करें। दुनिया पर किसी एक देश या किसी एक गठजोड़ का वर्चस्व नहीं होगा?
थ्योरिटिकल (सैद्धांतिक) अवधारणा है... यह व्यावहारिक नहीं।
आप वर्तमान में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य भी हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर परिस्थितियां कितनी विषम हैं?
भौगोलिक स्थिति की वजह से हमें पाकिस्तान और चीन दोनों से ही हमेशा सचेत रहने की जरूरत है। बांग्लादेश में तख्ता पलट के बाद परिस्थितियां बदल गई हैं और हमें उस मोर्चे पर भी जूझना पड़ रहा है। बांग्लादेश में पाकिस्तान की बढ़ती उपस्थिति हमारे लिए चिंता बढ़ाने वाली है। हालांकि सरकार और एजेंसियां इसको लेकर पहले से ही बहुत सतर्क हैं। म्यांमार और नेपाल की स्थिति पर भी नजर रखने की जरूरत है।
पाकिस्तान और चीन के साथ पहले ही तनाव, बांग्लादेश से बिगड़ते रिश्ते, मालदीव में भारत विरोधी भावना और नेपाल व श्रीलंका में अस्थिरता। भारत इन तनावों को कैसे रोकें?
जो कुछ हो रहा है, वह हमारे नियंत्रण से बाहर है। यदि पहलगाम नहीं होता तो आपरेशन सिंदूर नहीं होता। आपरेशन सिंदूर नहीं होता तो अमेरिका के साथ पाकिस्तान के रिश्ते नहीं गहराते। प्रधानमंत्री शेख हसीना का तख्तापलट नहीं होता तो बांग्लादेश से रिश्ते नहीं बिगड़ते। बाकी देशों में अंदरुनी अंसतोष है। चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते हैं। हम यह अपेक्षा नहीं कर सकते हैं कि हमेशा से ही हमारे रिश्ते सभी से एक समान और बेहतर रहेंगे, इसलिए भारत को हर देश के राजनीतिक दलों से तालमेल रखना चाहिए। |