सनातन के अंध विरोध में संविधान भी अखिलेश की काली सूची में

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समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव का संविधान विरोधी चेहरा एक बार फिर पूरी दुनिया ने देख लिया। तमिलनाडु में जब अदालत ने हिंदुओं को पूजा-पाठ, दीप जलाने और धार्मिक आचरण का अधिकार दिया, तो यह फैसला किसी राजनीतिक दल के पक्ष या विपक्ष में नहीं था, बल्कि यह संविधान के तहत प्रदत्त सनातन परंपरा और स्वतंत्रता की जीत थी। यह उस भारत की जीत थी, जहां आस्था को अपराध नहीं माना जाता। लेकिन यही फैसला अखिलेश यादव और उनके वैचारिक सहयोगियों को सबसे अधिक असहज कर गया। जिस नेता को हर मंच पर संविधान की किताब लहराते देखा जाता है, वही नेता न्यायिक फैसले के खिलाफ खड़ा दिखाई दिया। अखिलेश यादव कभी संविधान हितैषी नहीं रहे, वे सिर्फ़ उसे ज़रूरत के मुताबिक इस्तेमाल करने वाले नेता रहे हैं। संविधान उनके लिए कोई सिद्धांत नहीं, बल्कि एक राजनीतिक ढाल है, जिसे कभी नारे की तरह उठाया जाता है और कभी ठुकरा दिया जाता है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

तमिलनाडु का मामला इस सच्चाई का कोई अपवाद नहीं, बल्कि अखिलेश यादव की पुरानी और स्थापित सोच का ताज़ा उदाहरण है। यह फैसला अखिलेश यादव को इसलिए अस्वीकार्य लगा क्योंकि इस बार संविधान उनकी राजनीति के विपरीत खड़ा था। संविधान की दुहाई देने वाले अखिलेश यादव आज उसी संविधान के खिलाफ हैं और निर्णय देने वाले जज के खिलाफ महाभियोग जैसी अत्यंत गंभीर प्रक्रिया को भी राजनीतिक हथियार बनाने में संकोच नहीं कर रहे। यह व्यवहार किसी संवैधानिक चिंता का नहीं, बल्कि उस संविधान के प्रति विरोध और असहजता का प्रमाण है जो सत्ता, वोट और वैचारिक सुविधा से ऊपर उठकर स्वतंत्र निर्णय करता है। सच यही है कि जो नेता संविधान को तभी स्वीकार करता है जब वह उसके हित में बोले, वह उसका रक्षक नहीं, बल्कि उसका सबसे बड़ा अवसरवादी विरोधी होता है और अखिलेश यादव की पूरी राजनीति इसी अवसरवाद का दस्तावेज है।

तमिलनाडु से जुड़ी हालिया घटनाओं ने समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव की राजनीति को एक बार फिर संविधान की कसौटी पर खड़ा कर दिया है, जहां उनकी बेचैनी और उनकी चयनात्मक चुप्पी बहुत कुछ उजागर करती है। यह प्रतिक्रिया किसी सामान्य कानूनी असहमति तक सीमित नहीं है, बल्कि संविधान की स्वतंत्र व्याख्या और न्यायपालिका की स्वायत्तता के प्रति गहरे वैचारिक अस्वीकार का संकेत देती है। महाभियोग जैसी अत्यंत गंभीर और असाधारण संवैधानिक प्रक्रिया को राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की हड़बड़ी यह स्पष्ट करती है कि समस्या न तो न्यायिक प्रक्रिया से है और न ही संवैधानिक प्रावधानों से, बल्कि उस निर्णय से है जो संविधान की मूल भावना के अनुरूप दिया गया। सवाल यह नहीं है कि फैसला सही था या गलत, असल सवाल यह है कि क्या अखिलेश यादव को वह संविधान स्वीकार्य है जो सत्ता या वैचारिक सुविधा से परे जाकर स्वतंत्र निर्णय करता है?

आज देश का हिंदू समाज यह प्रश्न पूछ रहा है कि क्या अखिलेश यादव को वही न्याय मंजूर है, जो सनातन पर आघात करता हो? क्या उन्हें वही फैसले सहज लगते हैं, जिनमें आस्था को सीमित किया जाए, मंदिरों को विवाद में डाला जाए और धार्मिक परंपराओं को संदेह की दृष्टि से देखा जाए? अगर ऐसा नहीं है, तो फिर हिंदुओं को पूजा-पाठ और दिया जलाने का अधिकार मिलने पर इतनी तीव्र प्रतिक्रिया क्यों हुई? यह प्रतिक्रिया दरअसल न्याय के खिलाफ नहीं, बल्कि सनातन के अस्तित्व से असहजता का संकेत देती है।

तमिलनाडु की घटना कोई अपवाद नहीं है। सनातन के प्रति असहजता का यह पैटर्न उत्तर प्रदेश में बार-बार देखने को मिला है। अयोध्या से जुड़ी 84 कोस परिक्रमा केवल एक धार्मिक यात्रा नहीं, बल्कि राम-भक्ति की जीवंत परंपरा है। समाजवादी शासन में इस परिक्रमा को रोकने का प्रयास किया गया, मानो आस्था कोई अपराध हो। क्या यह प्रशासनिक निर्णय था या सनातन से असहजता का परिचायक?

श्रावण मास में निकलने वाली कांवड़ यात्रा पर बार-बार प्रतिबंध, मार्ग बदलना, लाठीचार्ज और अपमान—यह सब उस सरकार के समय हुआ जो खुद को धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा ठेकेदार बताती थी। सवाल यह है कि क्या शिवभक्तों की आस्था कानून-व्यवस्था के नाम पर ही कुचली जानी चाहिए थी?

कृष्ण जन्माष्टमी जैसे पर्व पर धार्मिक आयोजनों को संदेह की दृष्टि से देखा गया, अनुमति देने में आनाकानी की गई। क्या भगवान कृष्ण भी समाजवादी राजनीति को असुविधाजनक लगते थे? और वो भी तब जब खुद को यदुकुल गौरव का प्रतीक होने का दावा किया जाता है। दूसरी तरफ, मोहर्रम के दौरान सार्वजनिक हिंसा, हथियारों का प्रदर्शन और तांडव पर प्रशासनिक नरमी दिखाई दी। यही नहीं, जहां कार्रवाई होनी चाहिए थी वहां चुप्पी साध ली गई। सवाल यह है कि कानून सभी के लिए समान क्यों नहीं था?

अयोध्या में कारसेवकों पर गोलियां चलवाना कोई राजनीतिक भूल नहीं थी, बल्कि यह सनातन आस्था पर सीधा प्रहार था। रामभक्ति को कुचलने की यह घटना आज भी हिंदू समाज की स्मृति में एक गहरे घाव की तरह दर्ज है। सम्भल और मुजफ्फरनगर जैसे दंगों में हिंदू समाज को न्याय नहीं, बल्कि राजनीतिक संतुलन का शिकार बनाया गया। पीड़ितों के आंसू वोट बैंक के आगे गौण हो गए। दोषियों पर सख्त कार्रवाई के बजाय तुष्टिकरण की राजनीति हावी रही।

सनातन केवल पूजा-पद्धति नहीं है, बल्कि यह भारत की आत्मा है। जो राजनीति सनातन के अधिकारों पर प्रश्नचिह्न लगाती है, वह दरअसल इस देश की सांस्कृतिक चेतना को चुनौती देती है। लेकिन अखिलेश यादव की राजनीति बार-बार यह संकेत देती रही है कि सनातन उनके एजेंडे में तभी तक स्वीकार्य है, जब तक वह वोट बैंक के अनुकूल हो। जैसे ही सनातन अपने अधिकारों के साथ खड़ा होता है, वह उन्हें असुविधाजनक लगने लगता है।

यही वैचारिक असहजता तमिलनाडु में बने कफ सिरप से मासूम बच्चों की मौत के मामले में भी साफ दिखती है। लेकिन फर्क इतना है कि वहां चुप्पी साध ली गई। जहरीले कफ सिरप से बच्चों की मौत कोई प्रशासनिक भूल नहीं, बल्कि एक भयावह अपराध था। फिर भी अखिलेश यादव का मौन यह बताता है कि जहां सनातन पर हमला हो, वहां शोर मचता है और जहां राजनीतिक मित्रों की जवाबदेही बनती है, वहां सन्नाटा छा जाता है।

यह कोई संयोग नहीं है कि तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव निकट हैं। ऐसे में सनातन के पक्ष में आए फैसले पर तो राजनीति की जा सकती है, लेकिन जहरीले कफ सिरप पर सवाल उठाना गठबंधन और दोस्ती के समीकरण बिगाड़ सकता है। यही कारण है कि सनातन के मुद्दे पर उग्रता और मासूमों के मुद्दे पर मौन—यह दोहरा मापदंड अखिलेश यादव की राजनीति का स्थायी चरित्र बन चुका है।

आज देश का जागरूक हिंदू समाज यह भली-भांति समझ चुका है कि कौन सनातन के साथ खड़ा है और कौन केवल उसके नाम का उपयोग करता है। सनातन पर आघात को नजरअंदाज करना, उसके अधिकारों पर आए न्यायिक फैसलों से बेचैन होना और फिर संविधान की दुहाई देना यह राजनीतिक पाखंड अब छुप नहीं सकता।

सच यह है कि शब्दों से ज्यादा व्यवहार बोलता है और तमिलनाडु के घटनाक्रम ने यह साफ कर दिया है कि जब बात सनातन की आती है, तो अखिलेश यादव की राजनीति असहज, विरोधी और अवसरवादी नजर आती है। चुप्पी भी एक बयान होती है, लेकिन सनातन के सवाल पर यह चुप्पी नहीं, बल्कि विरोध में बदली हुई दिखाई देती है।
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