अटल के विचार, आचरण और मर्यादा सदैव प्रासंगिक, राजनीति को दी राष्ट्रनिर्माण की दिशा: नितिन गडकरी

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इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में \“अटल संस्मरण\“ पुस्तक के विमोचन कार्यक्रम को संबोधित करते केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी। जागरण  



जागरण संवाददाता, दक्षिणी दिल्ली। अटल बिहारी वाजपेयी के विचार कल भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे। उनका व्यक्तिगत आचरण राजनेता के तौर पर आदर्श है। उनका मूल सिद्धांत था- मतभेद हों, लेकिन मनभेद नहीं। विचारों में भिन्नता हो सकती है, पर मन में भेद नहीं होना चाहिए। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

यह बातें केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने बुधवार को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में वाजपेयी के मीडिया सलाहकार रहे अशोक टंडन की किताब \“\“\“\“अटल संस्मरण\“\“\“\“ के विमोचन के दौरान कही।

उन्होंने कहा कि सहनशीलता, संवेदनशीलता, समावेशित और सभी को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति ने उन्हें दूसरों से अलग बनाया। उन्होंने राष्ट्रवाद, सिद्धांतों, विचारों और समर्पण के साथ जीवन देश को समर्पित किया और राष्ट्र के पुनर्निर्माण की संकल्पना के साथ काम किया। उनकी वैचारिक विरासत से ही हमारी पार्टी का आधार बना और आज हम शिखर पर हैं।

उनकी ‘पालिसी आफ कन्विक्शन’ उनके जीवन का आधार थी, जिससे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। वे अपनों को अपना मानते थे, विरोधियों को भी अपनाते थे। उनके लिए राजनीति सत्ता पाने का माध्यम नहीं, राष्ट्र के पुनर्निर्माण का उपकरण थी।

वे हमेशा कहते थे प्रधानमंत्री कौन होगा ये मायने नहीं रखता देश कैसा होगा ये मायने रखता है। वे भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके विचार, व्यवहार, साहित्य, आचरण और मर्यादा आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। यह किताब राजनीति में आने वाली पीढ़ियों प्रेरणा देगी।
छोटी बातों में देते थे बड़ी सीख

गडकरी ने आगे कहा कि वे कम शब्दों में बड़ी सीख देते थे। उन्होंने कहा था “कितना भी महत्वपूर्ण काम हो, अगर कोई दफ्तर में आए तो बिना मिले मत लौटाना। समय कम दो, लेकिन मिलो जरूर।” ऐसे ही वे कहते थे, “जब हम मंत्री नहीं होते, तो पार्टी के कार्यकर्ता होते हैं, लेकिन मंत्री बनते हैं तो देश के होते हैं। विरोधी भी यदि सही काम लेकर आए, तो उसे अवश्य करें।”

उनकी इस बात पर मैं हमेशा अमल करता हूं। गडकरी ने किस्सा सुनाया कि जब मैं विपक्ष में था तो विधानसभा में अव्यवस्था हुई थी। तब उन्होंने मुझसे कहा था “विरोध जताने के लिए क्या यह सब आवश्यक है? शब्दों में ताकत नहीं है क्या? मर्यादा में रहकर भी विरोध किया जा सकता है।” और इस बात ने भी मुझे काफी प्रेरित किया।

वहीं, पत्रकार रजत शर्मा ने कहा कि छात्र जीवन में, जब विजय गोयल डूसू के अध्यक्ष थे और मैं महामंत्री था, दौलत राम कालेज में छात्रसंघ के उद्घाटन में वे अतिथि थे और मैं अध्यक्षता कर रहा था। उन्होंने कालेज के बारे में पूछा तो मैंने सहज भाव से कहा इसे ‘बहनजी का कालेज’ कहते हैं। अपने संबोधन में अटल जी ने इसी बात को विनोद और गंभीरता के साथ रखा, जिससे लगा कि उनकी जिह्वा पर सरस्वती विराजमान थीं।
डा. कलाम की जगह राष्ट्रपति न बनकर पेश की थी मिसाल

तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीतिक शुचिता की मिसाल पेश की थी। अगर उन्होंने भाजपा में उनके लिए आया देश का शीर्ष संवैधानिक पद संभालने का प्रस्ताव मान लिया होता तो साल 2002 में अटल देश के 11वें राष्ट्रपति होते और उनके उत्तराधिकारी लाल कृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री।

यह बातें अशोक टंडन ने बताईं। उन्होंने कहा कि \“वाजपेयी इसके लिए तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि मैं लोकप्रिय पीएम हूं। मेरे पास बहुमत है। किसी भी लोकप्रिय प्रधानमंत्री के लिए बहुमत के आधार पर राष्ट्रपति बनना भारतीय संसदीय लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं होगा और यह एक गलत मिसाल स्थापित करेगा।

अटल-आडवाणी की जोड़ी पर टंडन लिखते हैं कि कुछ नीतिगत मुद्दों पर मतभेदों के बावजूद दोनों नेताओं के बीच संबंध कभी सार्वजनिक रूप से खराब नहीं हुए। टंडन के अनुसार, आडवाणी हमेशा अटलजी को \“मेरे नेता और प्रेरणा का स्रोत\“ के रूप में बताते थे और वाजपेयी भी उन्हें अपने \“ अटल साथी\“ के रूप में संबोधित करते थे।

उन्होंने लिखा है- \“अटलजी और आडवाणी की जोड़ी भारतीय राजनीति में सहयोग और संतुलन का प्रतीक रही है। दोनों ने मिलकर न केवल भाजपा को खड़ा किया बल्कि संगठन और सरकार को एक नई दिशा भी दी।\“
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