प्राचीन है विष्णुपदी बैठकी होली की यह अनूठी परंपरा। Concept Photo
संस, जागरण, रानीखेत/बैरती। उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में पौष के पहले रविवार यानि 21 दिसंबर से भक्तिरस पर आधारित होली गीत गूंजने लगेंगे। अवधि व बृज बोली में लिपटी विशुद्ध शास्त्रीय रागों पर आधारित गायनशैली पहाड़ी होली को विशिष्ट बनाती है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
प्राचीनकाल से चली आ रही भक्तिरस पर आधारित विष्णुपदी बैठकी होली की इस परंपरा को वरिष्ठ रंगकर्मी आज भी कायम रखे हैं। अभी से तैयारी भी की जाने लगी है।
बैरती क्षेत्र के निदेशक भ्रातृ कला मंच व वरिष्ठ रंगकर्मी ललित त्रिपाठी के अनुसार चित्रेश्वर स्थित शिवालय में होलीगायन की तैयारी आरंभ कर दी गई है। बताया कि इस होली गायन में बैरती, गैराड़, भैनर, चितैली, पान, ककनर, उलैनी सदीगांव आदि गांवों के होल्यार भागीदारी कर रंग जमाते हैं।
इधर रानीखेत में भी बैठकी होली की तैयारी शुरू कर दी गई है। नगर के वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी कैलाश पांडे, प्रमोद कांडपाल, किरन साह के अनुसार पौष के प्रथम रविवार 21 दिसंबर को खड़ी बाजार से बैठकी होलीगायन का श्रीगणेश होगा।
तीन माह तक चलने वालीे होली की ये विधा पौष माह के प्रथम रविवार से गणपति वंदना के साथ शुरू होती है और माघ व फागुन में अपने रंग में रंग जाती है। इस अवधि में होल्यार होली के परंपरागत और शास्त्रीय गीतों को पूरे राग में गाते हैं।
होली गायकी की शुरुवात सोलहवीं सदी में चंद वंशीय राजा कल्याण चंन्द के शासनकाल से मानी जाती है। काव्य के साथ शस्त्रीय होली गीतों के रचयिताओं में सबसे पहले कविवर पंडित लोकरत्न गुमानी पन्त का नाम आता है। कुमाऊंनी होली संस्कार, संस्कृति, पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती है।
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