दुर्लभ प्रसाद की दूसरी शादी मूवी रिव्यू (फोटो-जागरण ऑनलाइन)
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। कई बार कहानियां किसी खास विषय को लेकर नेक इरादे के साथ बनाई जाती हैं। दुर्लभ प्रसाद की दूसरी शादी भी उनमें है। फिल्म का विचार जिंदगी को दूसरा मौका देने, रिश्तों को नए नजरिए से देखने और सामाजिक बंदिशों पर सवाल उठाने की मंशा से गढ़ा गया है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
पिता के लिए दुल्हन ढूंढ़ता है बेटा
बनारस की पृष्ठभूमि में बुनी गई यह कहानी मुरली प्रसाद (व्योम यादव) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपने सैलून चलाने वाले पिता दुर्लभ (संजय मिश्रा) और मामा (श्रीकांत वर्मा) के साथ रहता है। महक (पल्लक ललवानी) से मुरली प्रेम करता है, लेकिन उसके परिवार वाले अपनी बेटी की शादी एक ऐसे घर में करने से इनकार कर देते हैं, जहां कोई महिला नहीं है। ऐसे में मुरली अपने विधुर पिता की दोबारा शादी कराने का फैसला करता है। इस कोशिश में उसे परंपराओं, सामाजिक सोच और यहां तक कि अपने ही पिता के विरोध का भी सामना करना पड़ता है। इसी दौरान दुर्लभ की मुलाकात अपनी पूर्व प्रेमिका बबीता (महिमा चौधरी) से होती है। अब सवाल यह है कि क्या मुरली दोनों को मिलाकर अपनी शादी का रास्ता साफ कर पाएगा? कहानी इसी द्वंद्व के इर्द-गिर्द आगे बढ़ती है।
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क्या है फिल्म की सबसे बड़ी ताकत?
फिल्म में आध्यात्मिक शहर बनारस को सिर्फ बैकग्राउंड के तौर पर नहीं, पात्र के तौर पर दिखाया है इसके घाट, गलियां और रोजमर्रा कर गतिविधियां कहानी के सुर और भाव को उबारने में प्रभावी साबित होते हैं। इसके लिए सिनेमेटोग्राफर अनिल सिंह का योगदान उल्लेखनीय है। उन्होंने वाराणसी और उसके घाटों को खूबसूरती और संवेदनशीलता के साथ कैमरे में उतारा है। दुल्हन की खोज को लेकर कभी ज्योतिषी की शरण में जाना, कभी देसी टिंडर जैसे प्लेटफार्म पर जाना, कभी पर्चा छपवाना तो कभी वर-वधू मेले में किस्मत आजमाना जैसे प्रसंग हैं। इस प्रयास में नई मां के तौर पर एक दबंग महिला से सामना भी होता है। ये सभी ट्रैक कुछ हल्के-फुल्के हास्य के पल जरूर रचते हैं, लेकिन यह तलाश बहुत रोमांचक नहीं बन पाती है। हालांकि इसमें भरपूर संभावना थी। बहरहाल, पूर्वानुमानित कहानी होने के बावजूद निर्देशक सिद्धांत राज सिंह ने उसे अति नाटकीयता या लाउड होने से बचाया है। यही फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है।
वायरल हो जाता है महिमा चौधरी का वीडियो
मध्यांतर के ठीक पहले बबीता की एंट्री होती है। उसके बाद की कहानी बबीता और दुर्लभ की दोबारा पनपती दोस्ती और नजदीकियों पर केंद्रित रहती है। इससे कहानी में कुछ गति आती है और हास्य, सामाजिक विडंबनाओं व भावनात्मक टकरावों का सिलसिला शुरू होता है। वैलेंटाइन डे पर बबीता का एक वायरल वीडियो देखने के बाद महक के पिता का रुख बदल जाता है। उन्हें बेबाक स्वभाव और सिगरेट पीने वाली बबीता, अपनी बेटी की सास के रूप में उपयुक्त नहीं लगती। मुरली को जब पिता और बबीता के रिश्ते की सच्चाई पता चलती है, तो दोनों की शादी कराने का फैसला लेता है। यह पूरा ट्रैक बेहद जल्दबाजी में समेटा गया लगता है।
मूल रूप से यह फिल्म अकेले जीवनयापन कर रहे अधेड़ प्रेमियों के पुनर्मिलन, आत्मनिर्भर महिलाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण और माता-पिता का अपने बेटी की खुशी को तरजीह देने जैसे सशक्त विषयों को छूती है, लेकिन यह सभी प्रसंग जल्दबाजी में और सुविधाजनक तरीके से निपटाए गए प्रतीत होते हैं।
कुछ सीन्स में कमजोर नजर आईं महिमा चौधरी
अभिनय की बात करें तो पिता, बिछड़े प्रेमी और दुविधाओं से जूझते दुर्लभ के किरदार में संजय मिश्रा जंचते हैं। आत्मनिर्भर बबीता के रूप में महिमा चौधरी पात्र साथ न्याय करती है लेकिन भावनात्मक दृश्यों में थोड़ा कमजोर लगी हैं। व्योम यादव आत्मविश्वास के साथ अपने किरदार को निभाते हैं। पल्लक लालवानी ने महक को ईमानदारी साथ जीया है। हालांकि दोनों की केमिस्ट्री बहुत प्रभावशाली नहीं बन पाई हैं। सहयोगी भूमिका में श्रीकांत वर्मा बीच-बीच हास्य के पल लाते हैं। प्रवीण सिंह सिसौदिया सख्त पिता की भूमिका के साथ न्याय करते हैं।
संजय सांकला की एडीटिंग और अनुराग सैकिया का संगीत ठीक-ठाक है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक कहानी साथ सुसंगत है। कुल मिलाकर दुर्लभ प्रसाद की दूसरी शादी साफ सुथरी पारिवारिक फिल्म है।
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