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सिमुलतला हादसा: बुलेट ट्रेन के स्वप्न लोक में 67 घंटे बाद भी ट्रैक ठप, रेलवे की विश्वस्तरीय व्यवस्था पर सवाल

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सिमुलतला में पटरी से उतरी मालगाड़ी के डिब्बे। फोटो जागरण



संदीप कुमार सिंह, सिमुलतला (जमुई)। जब देश की संसद से लेकर सोशल मीडिया तक वंदे भारत और बुलेट ट्रेन की रफ्तार का शोर है, तब सिमुलतला के पास पटरी से उतरी एक मालगाड़ी ने हमें आईना दिखा दिया है। घटना को बीते 67 घंटे से अधिक का समय हो चुका है, लेकिन परिणाम क्या है? विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

सिर्फ डाउन लाइन पर ट्रायल ट्रेन चलाने की सुगबुगाहट। यह मात्र एक दुर्घटना नहीं, बल्कि उस व्यवस्था पर लगा प्रश्नचिह्न है जो दावा करती है कि भारतीय रेलवे विश्वस्तरीय हो रही है। आखिर क्यों एक ट्रैक को साफ करने में लगभग तीन दिन का समय लग जाता है?
67 घंटे का ब्लैकआउट: संसाधन की कमी या इच्छाशक्ति का अभाव?

हादसे के बाद राहत और बचाव कार्य युद्धस्तर पर होना चाहिए था, लेकिन यहां गति पैसेंजर ट्रेन से भी धीमी रही। 67 घंटे बीत जाने के बाद भी अगर परिचालन पूरी तरह सामान्य नहीं हो पाया है, तो यह चीख-चीख कर कह रहा है कि रेलवे के पास आपातकालीन संसाधनों का घोर अभाव है।

क्या हमारे पास भारी भरकम वैगनों को हटाने के लिए पर्याप्त आधुनिक क्रेन नहीं हैं? क्या मैनपावर की कमी है? या फिर अधिकारियों के पास त्वरित निर्णय लेने की क्षमता का अभाव? यह देरी यह साबित करती है कि सामान्य दिनों में हम भले ही रफ्तार की बात करें, लेकिन आपदा के समय हमारी व्यवस्था आज भी दशकों पुरानी है।
बुलेट ट्रेन का सपना बनाम पटरियों की हकीकत...

यह एक कड़वा विरोधाभास है। एक तरफ हम अहमदाबाद से मुंबई के बीच बुलेट ट्रेन चलाने के लिए अरबों रुपये का निवेश कर रहे हैं, और दूसरी तरफ हमारी मौजूदा पटरियां मालगाड़ी का बोझ भी नहीं संभाल पा रही हैं।
जनता पूछती है सवाल...

  • क्या बुलेट ट्रेन का सपना देखने से पहले हमें अपनी पुरानी पटरियों को सुरक्षित नहीं करना चाहिए?
  • जब हम सामान्य रेल यातायात को 24 घंटे के भीतर बहाल करने की क्षमता नहीं रखते, तो हाई-स्पीड नेटवर्क का रखरखाव कैसे होगा?
  • यह घटना बताती है कि रेलवे का आधारभूत ढांचा कमजोर है, और हम उस पर सुपरस्ट्रक्चर खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।

सामरिक संसाधन की कमजोरी: एक गंभीर चेतावनी यह प्रश्न

बिल्कुल सही है—क्या यह हमारी सामरिक क्षमता की पोल नहीं खोलता? रेलवे किसी भी देश की लाइफलाइन होती है। युद्ध या आपातकाल की स्थिति में रसद और सेना को सीमा तक पहुंचाने का काम इन्ही पटरियों का है। अगर एक सामान्य दुर्घटना के बाद मुख्य मार्ग को साफ करने में 3 दिन लगते हैं, तो सोचिए, किसी राष्ट्रीय आपातकाल या युद्ध जैसी स्थिति में अगर दुश्मन हमारी सप्लाई लाइन को निशाना बनाता है, तो क्या हम उसे समय रहते ठीक कर पाएंगे? यह दुर्घटना केवल यात्रियों की परेशानी नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से भी एक अलार्म बेल है।
रेलवे को क्या सबक लेना चाहिए?

सिमुलतला रेल हादसा रेलवे बोर्ड और मंत्रालय के लिए एक केस स्टडी होना चाहिए। क्विक रिस्पान्स टीम का आधुनिकीकरण हर जोन में ऐसी मशीनरी और टीम होनी चाहिए जो किसी भी मलबे को 12 से 24 घंटे के भीतर हटा सके।

  • मेंटेनेंस को प्राथमिकता नई ट्रेनें चलाने से ज्यादा जरूरी है पुरानी पटरियों की मरम्मत और निगरानी।
  • जवाबदेही तय हो 67 घंटे की देरी के लिए स्थानीय स्तर से लेकर बोर्ड स्तर तक जवाबदेही तय होनी चाहिए।


रेलवे को अब फीता काटने और हरी झंडी दिखाने की राजनीति से ऊपर उठकर पटरियों की जमीनी हकीकत पर ध्यान देना होगा। यात्री बुलेट ट्रेन का इंतजार कर लेंगे, लेकिन वे सुरक्षित सफर और समय पर गंतव्य तक पहुंचने के अधिकार से समझौता नहीं कर सकते। 67 घंटे का यह जाम, विकास के दावों पर एक बदनुमा दाग है।
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