IIT रुड़की का खुलासा, केदारनाथ जलविद्युत तो तमिलनाडु सौर एवं पवन ऊर्जा उत्पादन को उपयुक्त

LHC0088 2025-9-25 18:07:20 views 1282
  भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की कैंपस। जागरण आर्काइव





जागरण संवाददाता, रुड़की। भारत में आठ प्रतिष्ठित शिव मंदिरों का स्थान न केवल गहन आध्यात्मिक महत्व रखता है, बल्कि उच्च प्राकृतिक संसाधन उत्पादकता वाले क्षेत्रों के साथ भी निकटता से जुड़ा हुआ है। केदारनाथ जैसे उत्तरी स्थल जहां जलविद्युत के लिए आदर्श हैं। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

वहीं, तमिलनाडु जैसे दक्षिणी स्थान सौर एवं पवन ऊर्जा उत्पादन के लिए उपयुक्त हैं। इसका पता एक अध्ययन में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) रुड़की के शोधकर्ताओं ने अमृता विश्व विद्यापीठम (भारत) एवं उप्साला विश्वविद्यालय (स्वीडन) के सहयोग से लगाया है।  



यह अध्ययन ह्यूमैनिटीज एंड सोशल साइंसेज कम्युनिकेशंस (नेचर पोर्टफोलियो) में प्रकाशित हुआ है। आइआइटी रुड़की ने उत्तराखंड के केदारनाथ मंदिर, तमिलनाडु के रामानाथ स्वामी मंदिर, तिरुवन्नामलाई मंदिर, एकम्बरनाथर मंदिर, चिदंबरम नटराज मंदिर एवं जम्बुकेश्वर मंदिर और आंध्र प्रदेश के मल्लिकार्जुन स्वामी मंदिर एवं श्रीकालहस्ती मंदिर को लेकर अध्ययन किया है।  



संस्थान के जल संसाधन विकास एवं प्रबंधन विभाग (डब्ल्यूआरडीएम) के प्रमुख अन्वेषक एवं संकाय सदस्य प्रोफेसर केएस काशीविश्वनाथन के अनुसार इस अध्ययन से पता चलता है कि उत्तराखंड के केदारनाथ से लेकर तमिलनाडु के रामेश्वरम तक फैले ये मंदिर 79° पूर्वी देशांतर रेखा के आसपास केंद्रित एक संकरी उत्तर-दक्षिण पट्टी, जिसे शिव शक्ति अक्ष रेखा (एसएसएआर) कहा जाता है पर स्थित हैं।  



उपग्रह डेटा, भू-स्थानिक माडलिंग एवं पर्यावरणीय उत्पादकता विश्लेषण जैसे आधुनिक उपकरणों का उपयोग करते हुए शोधकर्ताओं ने पाया कि यह संरेखण जल उपलब्धता, नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता और कृषि उपज से समृद्ध क्षेत्रों के साथ मेल खाता है। निष्कर्ष बताते हैं कि इन प्राचीन मंदिर स्थलों का चयन संभवतः पर्यावरणीय प्रचुरता के प्रति गहरी जागरूकता के साथ किया गया होगा।  



उन्होंने बताया कि हालांकि एसएसएआर अध्ययन क्षेत्र केवल 18.5 प्रतिशत हिस्से को ही कवर करता है। फिर भी इसमें सालाना 44 मिलियन टन चावल उत्पादन की क्षमता है और अनुमानित 597 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता है, जो भारत की वर्तमान स्थापित नवीकरणीय क्षमता से भी अधिक है।  

- इनमें से कई मंदिर करते हैं पंचतत्वों में से एक का प्रतिनिधित्व  



प्रोफेसर केएस काशीविश्वनाथन ने बताया कि यह शोध दिखाता है कि प्राचीन भारतीय सभ्यताओं को प्रकृति और स्थायित्व की गहरी समझ रही होगी। जिसने उन्हें प्रमुख मंदिरों के निर्माण के स्थान चुनने में मार्गदर्शन दिया होगा।  

वहीं, पर्यावरणीय निष्कर्षों के अलावा अध्ययन मंदिर के प्रतीकवाद एवं पर्यावरणीय नियोजन के बीच संबंध स्थापित करता है। इनमें से कई मंदिर पंचतत्वों (पंचभूत) में से एक का प्रतिनिधित्व करते हैं: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश, और सदियों से आध्यात्मिक व सांस्कृतिक धरोहर के रूप में स्थापित हैं। Shardiya Navratri 2025, Maa Chandraghanta Puja, Argala Stotram Lyrics, Shardiya Navratri Tritiya, Durga Puja Significance, Hindu Festival, Religious Beliefs, Goddess Durga, Navratri Rituals, Spiritual Significance



शोध दल का मानना है कि मंदिर नियोजन केवल ब्रह्मांड विज्ञान या पौराणिक कथाओं पर ही आधारित नहीं था, बल्कि पीढ़ियों से चले आ रहे व्यावहारिक और अनुभवजन्य ज्ञान पर भी आधारित था। पवित्र मंदिरों की स्थापना के पीछे के वैज्ञानिक तर्क को उजागर करके न केवल अकादमिक समझ को समृद्ध किया जा रहा है, बल्कि यह भी लगा रहे हैं कि कैसे भारत का सभ्यतागत ज्ञान आज सतत विकास का मार्गदर्शन कर सकता है।  



भूमि, जल एवं ऊर्जा संसाधनों की थी गहरी समझ  

प्रमुख लेखक एवं शोध विद्वान भाबेश दास ने कहा कि अध्ययन का निष्कर्ष बताता है कि प्राचीन मंदिर निर्माता पर्यावरण योजनाकार भी थे। उनके निर्णय केवल आस्था से प्रेरित नहीं थे, बल्कि भूमि, जल एवं ऊर्जा संसाधनों की गहरी समझ से भी प्रेरित थे। डब्ल्यूआरडीएम के प्रमुख प्रो. थंगा राज चेलिया ने कहा कि यह एक उल्लेखनीय अंतःविषय सहयोग विरासत एवं जल संसाधनों के बीच सेतु का काम करता है।  



यह एक अधिक टिकाऊ भविष्य को आकार देने के लिए आधुनिक उपकरणों के साथ प्राचीन प्रथाओं पर पुनर्विचार करने के महत्व को दर्शाता है। यह अध्ययन बताया कि भारत की विरासत में न केवल सांस्कृतिक गहराई है, बल्कि इसमें रणनीतिक पर्यावरणीय अंतर्दृष्टि भी निहित है। जिसे आधुनिक विकास योजना में समझने और पुनः लागू करने की आवश्यकता है।  



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प्राचीन ज्ञान और आधुनिक विज्ञान एक-दूसरे के पूरक  

आइआइटी के निदेशक प्रो. केके पंत ने कहा कि यह अध्ययन बताता है कि कैसे प्राचीन ज्ञान और आधुनिक विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। यह अध्ययन सदियों से चले आ रहे पर्यावरणीय परिवर्तनों के बावजूद भू-आकृतियों और वर्षा वितरण पैटर्न में निरंतरता की ओर भी इशारा करता है।  

वैगई और पोरुनई नदी घाटियों जैसे क्षेत्रों से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य इस सिद्धांत का और समर्थन करते हैं कि प्राचीन मंदिर निर्माण का जल, कृषि और स्थिर भू-आकृतियों से गहरा संबंध था। ये जानकारियां संसाधन नियोजन और जलवायु लचीलेपन की समकालीन चुनौतियों के लिए मूल्यवान सबक प्रदान करती हैं।
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