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बिहार में बड़े बदलाव ही आहट... राजद-कांग्रेस के रिश्ते में आ रही दरार; क्या बिखर जाएगा महागठबंधन?

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बिहार में कांग्रेस के संभावित नए राजनीतिक प्रयोग की शुरुआत (फाइल फोटो)



अरविंद शर्मा, नई दिल्ली। बिहार की राजनीति में बड़े बदलाव की आहट है। हालिया विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस के रिश्ते जिस तरह से ठंडे पड़े हैं, उसने महागठबंधन के भविष्य पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। राजनीतिक गलियारों में चर्चा तेज हो गई है कि कांग्रेस बिहार में लालू प्रसाद और उनके परिवार-केंद्रित नेतृत्व से अलग होकर अपना राजनीतिक रास्ता तलाश सकती है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

हाल के दिनों में दिल्ली में कुछ अहम मुलाकातों और बिहार कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के लगातार तल्ख होते बयानों का संकेत साफ है कि दोनों दलों के रिश्ते असहज हो चुके हैं। दिल्ली में लगभग बीस दिन पहले कांग्रेस की रैली से एक दिन पहले भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य और कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा की मुलाकात हुई थी।
पीके से मिलीं प्रियंका गांधी

उसके बाद प्रशांत किशोर और प्रियंका की मुलाकात हुई। इसे बिहार में कांग्रेस के संभावित नए राजनीतिक प्रयोग की शुरुआती कड़ी के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि इस मुलाकात के बाद दीपंकर ने एक वरिष्ठ समाजवादी नेता से भी कांग्रेस के साथ बिहार की नई संभावनाओं को लेकर विचार-विमर्श किया। इससे संकेत मिलता है कि कांग्रेस केवल गठबंधन की मरम्मत नहीं, बल्कि विकल्पों की तलाश में भी जुट गई है।

महागठबंधन में यह अहसास तेज है कि लालू की विरासत से किसी भी तरह की नजदीकी नुकसानदेह ही होगी। भाकपा माले ने पिछले विधानसभा चुनाव में राजद के साथ मिलकर अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन इस बार उसे भी झटका लगा है। माले के भीतर और सहयोगी दलों में इस हार के लिए तेजस्वी यादव की नेतृत्व शैली पर सवाल उठ रहे हैं। चुनाव परिणाम के तुरंत बाद तेजस्वी का लंबे समय के लिए विदेश यात्रा पर चले जाना और सहयोगियों से संवाद का अभाव असहजता को और बढ़ा रहा है। राजनीति में निरंतर संवाद और सक्रियता को नेतृत्व की बुनियादी शर्त माना जाता है।
राजद से अलग तलाश रहे राह

कांग्रेस के सामने सवाल गहरा हो गया है कि क्या वह राजद के साथ उसी पुराने ढांचे में फंसी रहे, जहां उसकी भूमिका लगातार सिमटती जा रही है या फिर नए सिरे से बिहार में अपनी राजनीतिक भूमिका तय करे। प्रशांत किशोर जैसे रणनीतिकार और माले जैसे जमीनी दलों के साथ संवाद यह संकेत देता है कि कांग्रेस सामाजिक समीकरणों, युवाओं और नए मतदाता वर्ग को ध्यान में रखते हुए अलग रणनीति पर काम कर सकती है। प्रियंका की सक्रियता को इसी संभावित बदलाव के नजरिए से देखा जा रहा है।

बिहार विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के प्रदेश नेताओं के बयान भी इसी बदले हुए मूड की ओर इशारा करते हैं। पहले प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम ने महागठबंधन को केवल विधानसभा चुनाव तक सीमित करार दिया और अब वरिष्ठ नेता शकील अहमद खान खुलकर राजद पर हमलावर हैं। शकील ने दिल्ली में शीर्ष नेतृत्व की बैठक में साफ शब्दों में कहा कि लालू प्रसाद की पार्टी के साथ चुनावी तालमेल अब कांग्रेस के लिए \“फायदे का सौदा\“ नहीं रह गया है। कांग्रेस के नेता महसूस कर रहे हैं कि राजद की जिद और एकतरफा रवैये ने कांग्रेस की पहचान को कमजोर किया है।

राजद के साथ जुड़े रहने से न तो संगठन मजबूत हुआ और न ही नया सामाजिक आधार तैयार हो पाया। लालू यादव का भी अब पहले जैसा व्यापक आधार नहीं रहा। यह सोच यदि ठोस फैसलों में बदलती है तो यह न केवल महागठबंधन, बल्कि बिहार की पूरी राजनीति के लिए एक बड़ा मोड़ साबित हो सकता है। फिलहाल, इतना तय है कि कांग्रेस और राजद का रिश्ता अब पहले जैसा सहज नहीं रहा, और राजनीति में जब रिश्ते आईसीयू में पहुंचते हैं तो उनके बदले बिना आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता है।
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