The Taj Story Review: ताजमहल का DNA टेस्ट करती परेश रावल की मूवी, लोगों के मन में खड़े करती है कई सवाल

LHC0088 2025-10-31 22:48:46 views 652
  

द ताज स्टोरी मूवी रिव्यू/ फोटो- Jagran Graphics





प्रियंका सिंह, मुंबई। साल 1963 में रिलीज हुई फिल्म ताजमहल का एक प्रसिद्ध गीत है कि \“जमीं भी तेरी हैं हम भी तेरे, यह मिलकियत का सवाल क्या है...।\“ फिल्म द ताज स्टोरी विश्व धरोहर और दुनिया के सात अजूबों में शामिल ताजमहल की मिलकियत पर सवाल उठाती है। इतिहास की किताबों में जिक्र है कि उत्तर प्रदेश के आगरा में स्थित ताजमहल को 17वीं शताब्दी में मुगल सम्राट शाहजहां ने अपनी दूसरी बेगम मुमताज महल की याद में बनवाया था, भीतर उनका मकबरा भी है। लेकिन फिल्म सवाल उठाती है कि ताजमहल को शाहजहां ने नहीं बनवाया है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
इस सच को उजागर करती है \“द ताज स्टोरी\“

फिल्म की कहानी साल 1959 में आगरा से शुरू होती है। ताजमहल के निचले हिस्से में मरम्मत का काम चल रहा होता है। दीवार की एक दरार को दुरुस्त करने के लिए जैसी ही ईंटें निकाली जाती हैं, उसे पीछे की चीजें देखकर वहां मौजूद लोगों के होश उड़ जाते हैं। कहानी वहां से साल 2023 में आती है। विष्णु दास (परेश रावल) और उसका बेटा अविनाश (नमित दास) ताजमहल में गाइड का काम करते हैं। विष्णु गाइड एसोसिएशन के अध्यक्ष के लिए चुनाव लड़ने वाला होता है। अमेरिकन डाक्यूमेंट्री के लिए एक इंटरव्यू देते वक्त जब उससे ताजमहल के निचले हिस्से में बने कमरों का सच पूछा जाता है, तो वह ऐसे किसी बात से इनकार करता है।

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हालांकि, वह भीतर से जानता है कि उनके पीछे कोई राज है। नशे की हालत में वह कहता है कि ताजमहल का डीएनए टेस्ट करना चाहिए। विष्णु का वीडियो वायरल हो जाता है। गाइड असोसिएशन उसके खिलाफ हो जाते हैं। मामला अदालत तक पहुंच जाता है। विष्णु सरकार, शिक्षा विभाग से लेकर पुरातत्व विभाग तक सब पर याचिका दायर करता है।

  
दमदार डायलॉग्स के साथ बांधे रखेगी कहानी

कहानी फिल्म के निर्देशक तुषार ने ही लिखी है। उन्होंने भले ही शुरुआत में ही बता दिया हो कि यह काल्पनिक कहानी है, लेकिन फिल्म के अंत में कुछ अखबारों की लेखों द्वारा उन्होंने कई याचिकाओं का जिक्र कर फिल्म की कहानी को एक आधार देने का प्रयास किया है। उन याचिकाओं में ताजहमल को कभी मंदिर घोषित करने, कभी वहां जलाभिषेक और आरती करने, तो कभी 22 कमरों में देवी-देवताओं की मूर्तियां होने की आशंकाओं और इस्लामिक गतिविधियों को रोकने का जिक्र है। जिनमें से कई याचिकाएं विचाराधीन और लंबित हैं।

उन्होंने यही चतुराई फिल्म के अंत में भी दिखाई है, जहां इस फिल्म को किसी एक धर्म की तरफ न करके संतुलित कर दिया गया है। कुछ सवाल जरूर उठाए हैं, लेकिन ताजमहल के विश्व धरोहर होने के सम्मान और पर्यटकों के लिए उसकी अहमियत को प्रतिपक्षी वकील द्वारा संभाला भी गया है। फिल्म की पटकथा और संवाद तुषार के साथ सौरभ एम पांडे ने लिखी है। स्क्रीनप्ले बांधे रखता है।

  

भारत की रग रग में सनातन है..., ताजमहल का इतिहास जिस तरह से पढ़ाया जा रहा है, उसमें सच्चाई कम ग्लैमर ज्यादा है..., किसी को लवर ब्‍वॉय बना दिया किसी के नाम के आगे द ग्रेट लिख दिया गया..., हम कतई नहीं चाहते हैं कि ताजमहल को खरोच भी पहुंचे, हर समस्या का हल तोड़ने तुड़वाने से नहीं निकलता है, हम इतना चाहते हैं कि स्वीकार करें कि एक हिंदू महल को मकबरे में तब्दील किया गया था जैसे संवाद दमदार हैं।
फिल्म में कई मुद्दों को गंभीरता से उठाया गया है

फिल्म में कई सवाल भी उठाए गए हैं कि इतिहास के पाठ्यक्रम में हिंदू शूरवीर राजाओं का जिक्र कम क्यों कम, मुगलों के बारे में क्यों नहीं बताया गया है कि उन्होंने कितने लाखों लोगों को मारा, हजारों मंदिर तोड़े, ताजमहल के भीतर मुमताज की दो कब्रें क्यों हैं, गुंबद बनाने की प्रेरणा कहां से मिली, तहखानों में मौजूद 22 कमरों को क्यों चुनवा दिया गया, ऐसा करते समय कोई तस्वीर या वीडियो क्यों नहीं बनाई गई।

हालांकि, इनमें से किसी भी सवाल का जवाब अंत तक नहीं मिलता है। वहीं कुछ कमियां भी हैं, जैसे विष्णु जैसे आम व्यक्ति का सबूत आसानी से इकठ्ठा कर लेना खटकता भी है, उसके परिवार पर हमला होता है, लेकिन उस पर नहीं। खैर, इन सबके बीच भी अदालत की जिरह बांधे रखती है। हिमांशु एम तिवारी ने चुस्त संपादन किया है। सत्यजीत हाजर्निस अपनी सिनेमैटोग्राफी से आगरा ले जाते हैं।

  
परेश रावल ने भर दी किरदार में जान

अभिनय की बात करें, तो परेश रावल कोर्ट में निडर, तो वहीं परिवार की सुरक्षा को लेकर डरे-सहमें पिता के रोल में जंचते हैं। कोर्ट की जिरह को दिलचस्प बनाने में उन्हें प्रतिपक्षी वकील बने जाकिर हुसैन का पूरा साथ मिला है। नमित दास, स्नेहा वाघ, श्रीकांत वर्मा सीमित भूमिकाओं में अच्छा काम करते हैं।

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