गोशाला चौराहा व वर्ष 1950 से 1951 के मध्य आगरा,लखनऊ और हिसार की पशु प्रदर्शनी में सर्वश्रेष्ठ दुग्ध पशु की विजेता नर्मदा गाय। सौ. कानपुर गोशाला सोसायटी
जागरण संवाददाता, कानपुर। गोशाला चौराहा शहर की उस जीवंत स्मृति का नाम है, जहां कभी गोसेवा केवल कर्म नहीं, बल्कि सामाजिक संस्कार थी। वर्ष 1888 में शुरू हुई यह यात्रा जूही की गोशाला के साथ शहर की आत्मा से जुड़ गई। दान, सेवा और समर्पण से पली यह परंपरा समय के साथ शहरी विस्तार में खो गई। गोशाला चौराहा आज भी नाम के सहारे उस इतिहास की याद दिलाता है, जहां विकास के साथ संवेदना का संरक्षण भी जरूरी है। जूही गोशाला चौराहा आज भी 137 साल पुराने अपने नाम और इतिहास के जरिये शहर को सामाजिक व सांस्कृतिक अतीत से जोड़ता है। पढ़िए, संवाददाता रितेश द्विवेदी की रिपोर्ट... विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
1888 में सोसायटी का गठन
गोसेवा के लिए वर्ष 1888 में काहू कोठी निवासी समाजसेवी सरजू प्रसाद पांडेय ने गौक्षणीय सोसायटी का गठन किया। उस दौर में जब पशु संरक्षण संगठित रूप में नहीं था, तब यह पहल समाज के लिए मिसाल बनी थी। सोसायटी द्वारा पहली गोशाला रानीघाट क्षेत्र में संचालित की गई, जहां निराश्रित और बेसहारा गोवंश की देखभाल की जाने लगी। समय के साथ गोसेवा का यह कार्य विस्तार लेता गया।
गोसेवा को नहीं दिशा दी
गोशाला सोसायटी के उपसभापति सुरेश गुप्ता बताते हैं कि रानीघाट के बाद उन्नाव के सहजनी क्षेत्र में गोशाला का संचालन किया गया। इसके पश्चात कानपुर के जूही इलाके में वर्ष 1928 में 18 बीघा भूमि पर गोशाला स्थापित की गई, जिसने न सिर्फ गोसेवा को नई दिशा दी बल्कि पूरे क्षेत्र की पहचान भी बदल दी। 16 नवंबर 1937 को जूही गोशाला के निर्माण के लिए जनरलगंज निवासी दानवीर नथमल बक्स की फर्म श्रीकृष्णदास राम बक्स ने गोशाला सोसायटी को तीन बीघा जमीन और बगीचा चारा उत्पादन के लिए दान में दी। उस समय गोशाला सोसायटी के अध्यक्ष शहर के बड़े उद्योगपति लाला कमलापत सिंहानिया थे। उनके कार्यकाल में कई लोगों ने गोशाला के लिए जमीन दान में दी। यह दान उस समय के सामाजिक सरोकारों और गोसंरक्षण के प्रति व्यापारिक वर्ग की संवेदनशीलता का प्रतीक है।
गोशाला नाम शहर के नक्शे में दर्ज
जूही में गोशाला का संचालन शुरू हुआ तो धीरे-धीरे यह स्थान गोशाला चौराहा कहलाने लगा और यही नाम शहर के नक्शे में दर्ज हो गया। उस समय यह क्षेत्र शांत, हरियाली से घिरा और गोसेवा गतिविधियों से गुलजार रहता था। आसपास के लोग गोशाला से जुड़े कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। देश की आजादी तक, यानी वर्ष 1947 तक गोशाला का संचालन जूही में ही होता रहा। हालांकि, आजादी के बाद तेजी से बढ़ती आबादी और शहरी विस्तार ने गोशाला के संचालन में बाधा उत्पन्न की। उसी वर्ष गोशाला को जूही से हटाकर भौंती के प्रतापपुर में स्थानांतरित कर दिया गया। इसके साथ ही जूही क्षेत्र में गौसेवा की गतिविधियां समाप्त हो गईं, लेकिन गोशाला चौराहे का नाम इतिहास की याद के रूप में कायम रह गया।
गोशाला सोसायटी के नाम 1500 बीघा जमीन
आज स्थिति यह है कि गोशाला सोसायटी के नाम 1500 बीघे से अधिक भूमि दर्ज है। वर्तमान में जमीन का केवल बाजार मूल्य लगभग 67 अरब रुपये से अधिक का है। जहां कभी गोवंश की सेवा और संरक्षण होता था, वहां दुकानें, बाजार और व्यावसायिक प्रतिष्ठान संचालित हो रहे हैं। गोशाला की जमीन का बड़ा हिस्सा व्यावसायिक उपयोग में आ चुका है। नई पीढ़ी के लिए गोशाला चौराहा सिर्फ एक ट्रैफिक प्वाइंट है, जबकि इसके पीछे छिपा इतिहास धीरे-धीरे धुंधला होता जा रहा है। |