2015 की तरह इस बार भी बिहार में आरक्षण सबसे बड़ा ...

deltin55 2025-10-8 13:27:17 views 340


  • शकील अख्तर  
बिहार चुनाव की घोषणा होने वाली है। वहां यह मुद्दा सबसे बड़ा बनने जा रहा है। सोशल मीडिया पर इसकी शुरुआत हो गई है। और बीजेपी ने सोशल मीडिया और गोदी मीडिया दोनों को इतना ताकतवर बना दिया है कि देश का अजेंडा अब वही तय करते हैं। और इस बार यह अजेंडा आरक्षण बन गया है। क्या होगा इसका असर? बीजेपी का असली मुद्दा यही है।  
क्या बिहार चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा आरक्षण बनने जा रहा है? लगता यही है  और इसमें सबसे दिलचस्प बात यह है कि यह बिहार के किसी नेता की वजह से नहीं, दूर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव की वजह से बना है। सोशल मीडिया में जो बीजेपी को सबसे ज्यादा फायदा देने वाला मंच है वहां बीजेपी के लोगों के बीच ही मोहन यादव घिर गए हैं।  




मोहन यादव को वह सब गाली दी जा रही हैं जो बीजेपी के भक्त, ट्रोल कांग्रेस को और दूसरे लोगों को देते रहते हैं। उनसे इस्तीफा मांगा जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी से कहा जा रहा है उन्हें बर्खास्त कर दो।  
मोहन यादव का कसूर क्या है? आज की बीजेपी में यही मालूम नहीं पड़ता है। जगदीप धनखड़ का गुनाह क्या था? किसी को नहीं मालूम। खुद शायद धनखड़ को भी नहीं। इसी तरह सोनम वांगचुक अचानक देशद्रोही कैसे हो गए? वे भी मोदी मोदी करने में अव्वल थे। मगर आज राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) में अंदर हैं।  




मोहन यादव को अचानक मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया था। उन शिवराज सिंह चौहान को हटाकर जिन्होंने मध्यप्रदेश में बीजेपी की 5 बार सरकार बनवाई। मगर अब मोहन यादव को ही सबसे बड़े खलनायक बनाया जा रहा है। उन्होंने क्या किया?  
किया कुछ नहीं। केवल एक सर्वदलीय बैठक में कहा कि मध्य प्रदेश में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा। जो अभी 14 प्रतिशत है। इसके लिए उसने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा पेश किया है। सुप्रीम कोर्ट इस मामले में 8 अक्टूबर से रोज सुनवाई करने वाला है।  




सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में मध्य प्रदेश सरकार ने बताया कि राज्य में 51 प्रतिशत से अधिक ओबीसी हैं। बाकी वंचित समुदाय में 15. 6 प्रतिशत अनुसूचित जाति ( एससी) और 21. 1 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति ( एसटी) है। सब मिलाकर वंचित समूह 87 प्रतिशत से अधिक होता है। इसलिए जनसंख्या के लिहाज से और सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को देखते हुए आरक्षण बढ़ाया जाना चाहिए।  
संक्षेप में कुल मामला यह है। लेकिन चूंकि मोहन यादव खुद पिछड़े वर्ग से आते हैं इसलिए बीजेपी के अंदर उनको लेकर विरोध शुरू हो गया है। बीजेपी के बनाए हुए सोशल मीडिया के ट्रोल अब मोहन यादव के पीछे ही पड़ गए हैं।  




लेकिन यहां भी बीजेपी के फैलाए नफरत और विभाजन का असर दिखने लगा है। जो सवर्ण ट्रोल हैं या भक्त हैं। वे मोहन यादव को हर वह गाली दे रहे हैं जो उन्हें कांग्रेस, मुसलमान, अखिलेश, तेजस्वी, लालू को देने के लिए सिखाई गई थी। जाहिर है जो पिछड़े इतने दिनों से बीजेपी की सेवा में लगे थे वे एक तो आरक्षण का विरोध और फिर जातिगत आधार पर गाली देने से विचलित हो गए।  
हिन्दू एकता के नाम पर उन्हें दूसरों को गाली देने के लिए इक_ा किया गया था। मगर अब उन्हें हिन्दू नहीं जातिगत आधार पर छोटा दिखाकर बुरा-भला कहा जा रहा है साथ ही बीजेपी को धमकी दी जा रही है कि अगर उसने मोहन यादव को मुख्यमंत्री पद से नहीं हटाया तो उसे बिहार में हरवा दिया जाएगा।  

कह तो मोहन यादव को भस्मासुर रहे हैं। मगर ट्रोल या कहें बड़े वाले ट्रोल खुद अपने आपको इतना ताकतवर समझ रहे हैं कि वे चुनाव हरवा सकते हैं। हो सकता है सही भी हो। क्योंकि मोदी को 11 साल सत्ता में बनाए रखने में इनका बड़ा योगदान है। मोदी के पक्ष में और राहुल के खिलाफ नरेटिव (धारणाएं) बनाने में ट्रोलों और भक्तों का सबसे ज्यादा यूज किया गया है। अब तो जब यह आपस में जातिगत आधार पर लड़ रहे हैं जो यह कहा जाता है कि गंदे लोगों की आपस में लड़ाई में कुछ छूटता नहीं तो यह एक दूसरे का बता रहे हैं कि आईटी सेल और फलाने नेता से किसको कितना मिलता है।  

वह जब कहा जाता था कि एक ट्वीट के दो रुपए मिलते हैं तो सही बताएं हमें यकीन नहीं आता था। मगर अब तो आपस में एक दूसरे को नंगा किया जा रहा है। यह भी बताया जा रहा है कि झूठी खबरें चलाने पर जब किसी पर मामला दर्ज हुआ तो वह किस तरह डर गया था।  
कहने को यह ट्रोल कहते हैं कि हम नहीं डरते। मगर अब जब सब एक दूसरे की हकीकत बता रहे हैं तो मालूम पड़ता है कि कानून से सब डरते हैं।  
सोशल मीडिया पर जब भी ट्रोल गालियां दें, झूठ फैलाएं, चरित्र हनन करें तो इनके खिलाफ एफआईआर लिखवाना चाहिए। कांग्रेस को यह बात ज्यादा ध्यान रखना चाहिए कि उसके शासित प्रदेशों कर्नाटक, तेलंगाना में जब इनके खिलाफ पुलिस रिपोर्टें हुईं तो यह सब से ज्यादा डरे, रोए। और अधिकांश मामलों में जिनके लिए काम करते थे, माहौल बनाते थे वे मदद करने नहीं आए। घर परिवार व्यक्तिगत दोस्तों की वजह से ही बचे।  

इस सारे प्रकरण से एक बात और साफ हो गई। जिस मुस्लिम के नाम पर यह दलित पिछड़ों को जोड़ते थे वह असली दुश्मन नहीं है। न ही कांग्रेस है। मोहन यादव हटाओ अभियान में साफ लिख रहे हैं कि चाहे कांग्रेस आ जाए, मुस्लिम मुख्यमंत्री बन जाए मगर यादव को हटाकर रहेंगे।   
वास्तव में मनुवाद का असली निशाना दलित और पिछड़े ही हैं। मगर उनका वोट चाहिए और तादाद में ज्यादा है जैसा मध्य प्रदेश की बीजेपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के दिए अपने शपथ पत्र में कहा कि 87 प्रतिशत से ज्यादा तो इन्हें मुसलमान का झूठा डर दिखाकर साथ लिया जाता है।  

लेकिन अब मुसलमान बीच में कहीं नहीं है। पहले भी नहीं था। सिर्फ  एक काल्पनिक शत्रु बनाकर बीजेपी हिन्दुओं को डराती है। मगर अब जब ओबीसी को हक देने का सवाल आया तो बताया जाने लगा कि हमारी नौकरी, उच्च शिक्षा में सीटें मुस्लिम ने नहीं ली हैं, दलित ने ली हैं और अब पिछड़े अपना आरक्षण 14 से 27 प्रतिशत बढ़वाकर लेने वाले हैं।  
बिहार चुनाव की घोषणा होने वाली है। वहां यह मुद्दा सबसे बड़ा बनने जा रहा है। सोशल मीडिया पर इसकी शुरुआत हो गई है। और बीजेपी ने सोशल मीडिया और गोदी मीडिया दोनों को इतना ताकतवर बना दिया है कि देश का अजेंडा अब वही तय करते हैं। और इस बार यह अजेंडा आरक्षण बन गया है।  

क्या होगा इसका असर? बीजेपी का असली मुद्दा यही है। 2014 लोकसभा चुनाव के पहले बीजेपी नेताओं ने खुलकर 400 से ऊपर सीटें मांगी थीं। खुद प्रधानमंत्री ने कहा था 400 पार। बीजेपी के नेताओं ने कहा था संविधान बदलने के लिए इतनी सीटें दो तिहाई चाहिए। अगर मिल गई होतीं तो आरक्षण खतम हो गया होता।  
2014 में बीजेपी की जीत के बाद भी भाजपा और संघ इसी एक सूत्रीय कार्यक्रम पर शुरू हो गए थे। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बिहार के विधानसभा चुनाव 2015 में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कही थी। मगर परिणाम उल्टा निकला। भाजपा हार गई।   

इस बार 2025 में संघ और भाजपा खुद न कहकर अपने सोशल मीडिया ट्रोलों से कहलवा रहे हैं। क्या होगा परिणाम? देखना दिलचस्प होगा। अगर आरक्षण का मुद्दा केन्द्र में आ गया जिसकी पूरी संभावना है क्योंकि 8 अक्टूबर से इस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हो रही है तो पूरा चुनाव आरक्षण समर्थक और आरक्षण के विरोध में हो जाएगा। बीजेपी को शायद ही यह सूट करे। उसे 2015 की याद आ जाएगी। जब आरक्षण के मुद्दे ने उसे हरा दिया था।   
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)






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