आयुर्वेदिक औषधियों में सबसे ज्यादा अत्याचार च्यवनप्राश के साथ, मूल स्वरूप से व्‍यापक छेड़छाड़

LHC0088 2025-11-27 01:17:45 views 681
  

आयुर्वेद की उपज च्‍यवनप्राश पर भरोसा पुराने ऋष‍ि मुन‍ि और आयुर्वेदाचार्य ही नहीं बल्‍क‍ि आज के आधुन‍िक दौर में भी भरोसा बरकरार है।



जागरण संवाददाता, वाराणसी। सर्द‍ियों की शुरुआत हो चुकी है। ऐसे में इस मौसम में होने वाली बीमार‍ियों से बचाव के ल‍िए आयुर्वेद की उपज च्‍यवनप्राश पर भरोसा पुराने ऋष‍ि मुन‍ि और आयुर्वेदाचार्य ही नहीं बल्‍क‍ि आज के आधुन‍िक दौर में भी भरोसा बरकरार है। आयुर्वेदाचार्य डा. अजय गुप्‍त बताते हैं कि‍ आयुर्वेदिक औषधियों में सबसे ज्यादा अत्याचार हुआ है तो वो हुआ है च्यवनप्राश के साथ। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

आजकल चीनी वाला च्यवनप्राश, गुड़ वाला च्यवनप्राश, शुगर फ्री च्यवनप्राश, Mango flavour वाला और Orange flavour वाला और पता नही कितने टाइप वाला। आप किसी भी औषधि के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ करते है तो आप उससे होने वाले चमत्कारिक फायदों को तो भूल ही जाइये। केवल एक कंपनी की बात नही है लगभग सभी ने इसके मूल घटकों के साथ बदलाव किए है।

आचार्य चरक जो “Father of Indian Medicine“ माने जाते है उन्होंने चिकित्सा स्थान के रसायन अध्याय में इसके घटक द्रव्यों, इसको बनाने की विधि और इसके फायदों का विस्तार से उल्लेख किया है। आप किसी भी कंपनी के लेबल पर दिए गए घटकों से तुलना कर लीजिये आपको बहुत ज्यादा अंतर मिलेगा। कुछ वजह यह है कि काल के प्रभाव से, जलवायु परिवर्तन से बहुत सी औषधियाँ विलुप्त हो गयीं और कुछ व्यापारिक लाभ के चलते, बढिया स्वाद आये और प्रोडक्ट ज्यादा बिके, इसके लिए चीनी की मात्रा बढ़ा दी गयी।

मूल स्वरूप में च्यवनप्राश बनाते समय घृत के बराबर ही आचार्य ने तिल का तेल भी प्रयोग किया था। तिल का तेल उष्ण वीर्य होता है और कफ का नाशक होता है इसलिए श्वास कास रोगों में बेहतर प्रभाव दिखता है। दूसरा प्रमुख परिवर्तन है गुड़ की जगह चीनी का प्रयोग। आचार्य ने गुड़ का प्रयोग किया है जो चीनी के मुकाबले बेहतर होता है और आयुर्वेदिक दृष्टि से देखा जाए तो दोनों में काफी अंतर होता है।

तीसरा अंतर यह है कि अष्टवर्ग की औषधियाँ विलुप्त हो चुकी है इनकी जगह दूसरी औषधियाँ का प्रयोग किया जाता है। चौथी समस्या यह है कि आवंले का संग्रह कब किया जाए। जाड़े के दिनों में उत्पन्न आवंले श्रेष्ठ होते है और बिल्कुल ताजे आवंले से बनाया जाए तो च्यवनप्राश बढिया बनता है। जबकि आजकल आवंले का संग्रह करके पूरे वर्ष पर्यंत च्यवनप्राश बनता है।

चरक संहिता चिकित्सा अध्याय-1 में वर्णित पूरा संदर्भ नीचे जानकारी के लिए मूलरूप में प्रस्तुत है:

च्यवनप्राश के घटक:-
बिल्वोऽग्निमन्थः श्योनाकः काश्मर्यः पाटलिर्बला ।
पर्ण्यश्चतस्त्रः पिप्पल्यः श्वदंष्ट्रा बृहतीद्वयम् ॥६ २॥
शृङ्गी तामलकी द्राक्षा जीवन्ती पुष्करागुरु।
अभया चामृता ऋद्धिर्जीवकर्षभकी शटी ॥६३॥
मुस्तं पुनर्नवा मेदा सैला चन्दनमुत्पलम्।
विदारी वृषमूलानि काकोली काकनासिका ॥६४॥
एषां पलोन्मितान् भागाञ्छतान्यामलकस्य च।
पञ्च दद्यात्तदैकध्यं जलद्रोणे विपाचयेत् ॥६५॥
ज्ञात्वा गतरसान्येतान्यौषधान्यथ तं रसम् ।
तच्चामलकमुद्धृत्य निष्कुलं तैलसर्पिषोः ॥६६॥
पलद्वादशके भृष्ट्वा दत्त्वा चार्धतुलां भिषक् ।
मत्स्यण्डिकायाः पूताया लेहवत्साधु साधयेत् ॥६७॥
षट्पलं मधुनश्चात्र सिद्धशीते प्रदापयेत् ।
चतुष्पलं तुगाक्षीर्याः पिप्पलीद्विपलं तथा ॥६८॥
पलमेकं निदध्याच्च त्वगेलापत्रकेशरात् ।
इत्ययं च्यवनप्राशः परमुक्तो रसायनः ॥६९॥

च्यवनप्राश- बेल की छाल, गनियार की छाल, सोनापाठा की छाल, गम्भार की छाल, पादल की छाल, बरियरा का मूल, सरिवन, पिठिवन, वनमूँग, वनउड़द, पीपर, गोखरू, वनभण्टा, भटकटैया की जड़, काकड़ासींगी, भूमिआँवला, मुनक्का, जीवन्ती, पुष्करमूल, काला अगर, बड़ी हरें, गुरुच, ऋद्धि, जीवक, ऋषभक, कचूर, खेत का मोथा, गदहपूरना, मेदा, बड़ी इलायची, लालचन्दन, नीलकमल, विदारीकन्द, अडूसा की पत्ती, काकोली, कौआठोंठी, प्रत्येक 1-1 पल, ये क्वाथ्य-द्रव्य है। इन्हें 1 द्रोण जल में डालकर क्वाथ बनाएँ और उसी जल में मझोले कद के 5०० ताजे आँवले को लेकर; एक कपड़े में पोटली बनाकर क्वाथ में छोड़ दें, जब आँवला उबल जाय, तो उसे बाहर निकाल लें और क्वाथ्य द्रव्य का रस जब क्वाथ में भली प्रकार आ जाय और द्रव्य नीरस हो जाय तो क्वाथ को छान कर द्रव्य को फेंक दे।

अब आँवले से गुठली को अलग कर कपड़े में घिसकर आँवले को छान ले। रेशे को बाहर फेंक दे। छनी हुयी मात्रा का 6 पल गोघृत और 6 पल तिल के तेल में अच्छी प्रकार भून दें। जब आँवला का वर्ण कुछ लालिमायुक्त हो जाय तो उतार लें। पूर्व छने हुए क्वाथ में 50 पल खाँड़ डालकर चासनी बना ले, उस चासनी को भुने हुए आंवले में मिलाकर पुनः आग पर चढ़ा दे और मन्द-मन्द आँच में पकाएँ। जब अवलेह के समान हो जाय, तो आग से उतार लें, शीतल हो जाने पर (प्रक्षेप द्रव्य) 6 पल मधु मिला दें और 4 पल वंशलोचन, 2 पल पीपर, इलायची का दाना, दालचीनी, तेजपत्ता, नागकेसर मिलित 1 पल, इन सबों का कपड़छान चूर्ण बनाकर उसी में डालकर चलाकर मिला दें। इस प्रकार यह उत्तम च्यवनप्राश रसायन तैयार हो जाता है।।62-69।।

च्यवनप्राश के गुण
कासश्वासहरश्चैव विशेषेणोपदिश्यते ।
क्षीणक्षतानां वृद्धानां बालानां चाङ्गवर्धनः ॥७०॥
स्वरक्षयमुरोरोगं हृद्रोगं वातशोणितम् ।
पिपासां मूत्रशुक्रस्थान् दोषांश्चाप्यकर्षति ॥७१॥
अस्य मात्रां प्रयुञ्जीत योपरुन्ध्यान्न भोजनम्।
अस्य प्रयोगाच्च्यवनः सुवृद्धोऽभूत् पुनर्युवा ॥७२॥
मेधां स्मृतिं कान्तिमनामयत्वमायुः प्रकर्ष बलमिन्द्रियाणाम् ।
स्त्रीषु प्रहर्ष परमग्निवृद्धिं वर्णप्रसादं पवनानुलोम्यम् ॥७३॥

च्यवनप्राश के गुण

यह कास को विशेष रूप से नष्ट करता है। जो व्यक्ति क्षत से क्षीण या वृद्ध हो गया है या बालक है, उसके अङ्गों को बढ़ाने वाला होता है अर्थात् रस-रक्तादि धातुओं को बढ़ाता है और स्वरभेद, वक्षःस्थल के रोग अर्थात् फुप्फुस-विकृति, हृद्रोग, वातरक्त और तृष्णा रोग को दूर करता है एवं मूत्राशय व शुक्र में रहने वाले विकृत्वात, पित्त, कफ को दूर करता है।

इस च्यवनप्राश रसायन की मात्रा बल के अनुसार इतनी खिलाई जाती है, जिससे भोजन की मात्रा में न्यूनता न हो सके। इसके प्रयोग से अत्यन्त वृद्ध च्यवन ऋषि पुनः युवा हो गये थे। इसके सेवन करने वाले व्यक्तियों की मेधा (धारणाशक्ति), स्मरणशक्ति, शरीर की कान्ति, आरोग्य, आयु की वृद्धि, इन्द्रियों में बल, मैथुन करने की शक्ति, जठराग्नि की अत्यन्त वृद्धि, शारीरिक वर्ण की स्वच्छता और वायु का अनुलोमन होता है और विशेषकर कुटी-प्रवेश की विधि से इसका प्रयोग किया जाय, तो वृद्ध पुरुष भी अपनी वृद्धता के लक्षणों को त्यागकर युवा बन जाता है।।70-74।।

विमर्श - च्यवनप्राश सेवन से इन उपर्युक्त गुणों की प्राप्ति अवश्य होती है, पर यह गुण तभी सम्भव है, जब सारी औषधियाँ ताजी मिलें। अष्टवर्ग जो इसका मुख्य घटक है, उसकी वस्तुतः प्राप्ति नहीं होती है। आजकल बाजार में जो अष्टवर्ग आता है, वह सन्देहग्रस्त है; क्योंकि शास्त्रों में अष्टवर्ग के जो लक्षण लिखे गये हैं, वे लक्षण उसमें प्राप्त नहीं हैं। इससे उत्तम यह है कि अष्टवर्ग के प्रतिनिधि वरी, विदारी, अश्वगन्धा, वाराहीकन्द इनका ही ग्रहण करें।

इसके निर्माण में खाँड़ की जो मात्रा निर्धारित है, उतने से स्वाद उत्तम नहीं होता, अतः निर्दिष्ट मात्रा से डेढ़ गुना छोड़ना स्वाद के लिए उत्तम होता है। पूष, माघ और फाल्गुन में रस-गुण-वीर्य आदि से आपूर्ण आँवले मिलते हैं। यदि उस समय के आँवले से च्यवनप्राश बनाया जाय, तो वह उत्तम स्वाद तथा गुणवाला होता है। यद्यपि आजकल उत्तम औषधियों के अभाव में ठीक प्रकार से च्यवनप्राश नहीं बन पाता, फिर भी श्वसन संस्थान (Respiratory system) के लिए यह अच्छा बल्य (Tonic) है।
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