बिहार चुनाव : भाजपा-राजद का कृष्णपक्ष, जदयू-क ...

deltin55 2025-10-8 13:25:33 views 554


  • अरविन्द मोहन
जिस भाजपा के लिए इस बार बिहार जीतने का मौका था वह सचमुच मुंह छुपा रही है या नीतीश को आगे करके लोक-लुभावन कार्यक्रमों और पैसे बांटकर चुनाव जीतना चाहती है। पैंतीस साल से एक ही तरह की राजनीति और शासन झेल रहे बिहार को नई राजनीति चाहिए लेकिन न तो भाजपा उसके लिए तैयार है न प्रशांत किशोर खुद को विकल्प के रूप में पेश कर पा रहे हैं। उन्होंने बहुत मेहनत की है, होशियार है  
बीस साल से बिहार में राज्य कर रहे नीतीश कुमार जब हड़बड़ी में पटना मेट्रो का उद्घाटन कर रहे थे उसके कुछ घंटे बाद ही आदर्श चुनाव संहिता लागू होने के चलते पटना और प्रदेश के अन्य शहरों में लगे उन होर्डिंगों और प्रचार सामग्री को उतारने में मजदूर जुट गए जिनसे राज्य सरकार आगामी चुनाव में कुछ लाभ पाने की उम्मीद कर रही है। मात्र तीन स्टेशनों के बीच मेट्रो चलाने की परियोजना भी इसी के चलते हड़बड़ी में शुरू हुई। लेकिन नीतीश कुमार और उनके साथ सत्ता में भागीदारी कर रही भाजपा को भरोसा है कि पचहत्तर लाख महिलाओं के खातों में दस-दस हजार रुपए ट्रांसफर करने से लेकर डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर वाली जिन लगभग एक दर्जन योजनाओं की घोषणा पिछले कुछ महीनों के अंदर हुई है वह बीस साल के एंटी-इंकम्बेन्सी को काटकर एनडीए को जीत दिला देगी। विपक्ष भी इस बारे में मुंह खोलने और आलोचना करने से बच रहा है क्योंकि इससे उसकी छवि खराब होगी। सो विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव नीतीश कुमार पर उनकी योजनाएं चुराने का आरोप लगा रहे हैं।  




कहना न होगा कि अब वे वोट चोरी के सवाल को उस तरह उठाने का उत्साह नहीं दिखा रहे हैं जैसा डेढ़-दो महीने पहले कर रहे थे। इस मुद्दे को बहुत जोर-शोर से उठाने वाले कांग्रेसी नेता राहुल गांधी तो अचानक बिहार के राजनैतिक परिदृश्य से कुछ समय गायब हो गए लेकिन वोट चोरी का मसला सुप्रीम कोर्ट के कई बार दिए गए दखल से काफी कुछ लाइन पर आया और चुनाव आयोग तथा शासक गठबंधन ने भी मतदाता सूची पुनरीक्षण पर पहले जैसी गलतियां न करके मामले को कुछ ठंडा पड़ने दिया है। इस बीच प्रशांत किशोर ने प्रदेश भाजपा के चार प्रमुख नेताओं और नीतीश कुमार के एक दुलारे मंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले उठाकर बिहार में काफी खलबली मचाई है और वोट चोरी के सवाल को भी पीछे किया है। तेजस्वी की मुश्किल यह है कि वे भ्रष्टाचार के सवाल को भी ज्यादा जोर से नहीं उठा सकते क्योंकि लालू यादव का सजायाफ़्ता होना और खुद तेजस्वी समेत सारे परिवार के अभी भी आरोपों में घिरे होने से यह सवाल उनके चुनावी भविष्य के लिए मुश्किल बन सकता है। भाजपा ने जिस सम्राट चौधरी पर दांव लगाया था वे तो प्रशांत के आरोपों से लहूलुहान हुए ही हैं प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल और दो पूर्व अध्यक्ष-संजय जायसवाल तथा मंगल पांडेय भी बुरी तरह घिर गए हैं। प्रशांत का जवाब देने के लिए भाजपा का एक भी बड़ा नेता सामने नहीं आया तो नीतीश कुमार तो मौनी बाबा बन ही गए हैं।  




लेकिन जिस भाजपा के लिए इस बार बिहार जीतने का मौका था वह सचमुच मुंह छुपा रही है या नीतीश को आगे करके लोक-लुभावन कार्यक्रमों और पैसे बांटकर चुनाव जीतना चाहती है। पैंतीस साल से एक ही तरह की राजनीति और शासन झेल रहे बिहार को नई राजनीति चाहिए लेकिन न तो भाजपा उसके लिए तैयार है न प्रशांत किशोर खुद को विकल्प के रूप में पेश कर पा रहे हैं। उन्होंने बहुत मेहनत की है, होशियार हैं लेकिन उनका अगड़ा होना और पैसों के संदिग्ध स्रोत उनकी राजनीति पर सवाल खड़े कर रहे हैं। पर भाजपा तो जैसे-जैसे अपने पैरों पर खड़ा होने की जगह नीतीश कुमार के चेहरे के पीछे छुप रही है वैसे-वैसे उसका स्वतंत्र ढंग से बिहार की राजनीति में बढ़ना थम गया है। खुद थक-हार गए नीतीश कुमार अपनी पार्टी संभाल नहीं पा रहे हैं तो भाजपा को क्या सहारा देंगे। एक उनकी ईमानदारी वाली छवि है और उसने बीस साल का राज दिलवा दिया है। जैसे-जैसे भाजपा के नेताओं का ग्राफ गिरा है नीतीश कुमार के लिए सहानुभूति बढ़ती गई है। वह चुनाव जितवा देगी यह कहना जल्दबाजी होगी। खुद को असहाय पाती भाजपा इस बार चिराग पासवान, पप्पू यादव और ओवैसी जैसों के सहारे नीतीश और विपक्ष को पंचर करने का दोहरा खेल इस बार नहीं खेल पा रही है।  




भाजपा के बाद सबसे मजबूत दल राजद का किस्सा हल्का बयान हुआ है पर यह भी कहना जरूरी है कि इस बार वह मुसलमान वोट के पूरी तरह इंडिया गठबंधन की तरफ आने से बम बम है। वक्फ कानून पर भाजपा का साथ देने से नीतीश कुमार पर मुसलमानों का भरोसा पूरी तरह टूट गया है। लेकिन उसी अनुपात में कांग्रेस का ग्राफ चढ़ा भी है इसलिए तेजस्वी या राजद को इस सच्चाई को ध्यान में रखना होगा। और कांग्रेस ने रविदासियों, मुसहरों और अति पिछड़ा समाज में घुसपैठ करने की गंभीर कोशिशें की हैं जैसा यादव दबदबे वाली राजद नहीं कर पाई है। लगभग 36 फीसदी आबादी वाला अति पिछड़ा समाज भी हाल के वर्षों में अपने विरोधाभासों से जूझता रहा है और वह एक साथ वोट देगा यह मानना जल्दबाजी होगी। उसे नीतीश कुमार का भरोसा है पर वह यह भी देख रहा है कि वे अब राजनीति में ज्यादा समय चलने वाले नहीं हैं और अगर यह वोट बैंक बिखरा तो कहां जाएगा? यह कहना अभी भी मुश्किल है।  इतना कहा जा सकता है अगर भाजपा अपने दम पर होती तो इस समाज के उसके पास जाने का सबसे ज्यादा अवसर था।  




भाजपा नरेंद्र मोदी के चेहरे, अमित शाह की चौकस व्यवस्था, केंद्र के धन के साथ अपने अपार संसाधनों के बल पर है लेकिन स्थानीय नेतृत्व के मामले में कमजोर पड़ने से उसकी तकलीफ बढ़ रही है। और सिर्फ पिछड़ा नेता सामने करने के चलते उसे अगड़ों की नाराजगी भी झेलनी पड़ रही है जो इस बार प्रशांत किशोर का नाम लेने लगा है। यह सिर्फ भाजपा को डराने और ज्यादा टिकट के लिए दबाव बनाने के लिए है यह जल्दी ही साफ हो जाएगा। ज्यादा नए वोटर कांग्रेस से जुड़ें तो भी हैरानी नहीं होगी क्योंकि राहुल गांधी ने लगातार दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के सवाल को जिस तरह उठाया है वैसा कोई और नहीं कर पाया है। यह जरूर है कि मजबूत संगठन और सामाजिक आधार न होने से कांग्रेस बूथ स्तर पर भाजपा या एनडीए का मुकाबला करती नहीं लगती लेकिन चुनाव में लोगों का मन ही सर्वोपरि महत्व की चीज है। इसलिए कांग्रेस और जदयू बढ़े तथा राजद और भाजपा की सीटें घटे तो हैरान न होइएगा। कम से कम इस लेखक को प्रशांत किशोर से किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं है।






Deshbandhu



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