दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे ने पूरे किए 30 साल, माता-पिता और बच्चों के लिए सीख है ये फिल्म

cy520520 2025-10-19 11:06:43 views 1035
  

सिनेमा में दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे का 30 साल का जश्न/ फोटो- IMDB



मनीष त्रिपाठी, नई दिल्ली। यह उन दिनों की बात है जब सर्दियां, मोहब्बत और जिंदगी तीनों ही गुलाबी लगती थीं। उम्र पर लगी टीन की चिप्पी उखड़ चुकी थी और पुराने स्कूटर पर सवार नौजवान मन सब कुछ पा लेना चाहता था। हिंदी सिनेमा के उस छोटे से दर्शक जीवन में आंख-कान माफिया, महारानी और झंकार बीट्स के आदी हो चुके थे कि 1995 के गुजरते अगस्त में म्यूजिक कैसेट शॉप्स पर मैंडोलिन की मीठी धुन गूंजने लगी। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

एचएमवी (अब सारेगामा) ने कुछ ऐसा जारी किया था, जो उस दौर से बहुत अलग हटकर था। तब क्या पता था कि उस नामालूम जिद्दी-सी धुन का जादू दुनिया पर ऐसा चढ़ेगा कि लगभग दो महीने बाद 20 अक्टूबर, 1995 को प्रदर्शित हुई ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ न केवल भारतीय बल्कि, विश्व सिनेमा में मील का पत्थर बन जाएगी।
चमकीली दुनिया का गुलाबी जादू

30 साल का सफर पूरा कर चुकी और अब भी सदाबहार, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ ने इतिहास भी रचा और कई मिथक भी तोड़े। सिनेमा के दायरे से आगे निकलकर इसका प्रभाव समाज और जीवनशैली पर इतना गहरा है कि यह मीम्स से लेकर थीम्स तक यत्र-तत्र-सर्वत्र है। यह वह फिल्म थी, जिसने संपूर्ण भव्यता के साथ भारतीयों को न केवल एनआरआई जिंदगी से परिचित कराया, बल्कि टूर ऑपरेटर्स की भी लॉटरी लगवा दी।  

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उदारीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था का नया-नया स्वाद चखने वाले उच्च मध्य वर्ग के लिए यह जैसे यूरोप का आमंत्रण था तो युवाओं के लिए सपनों की वह चमकीली दुनिया, जहां तीन घंटे के लिए ही सही, वो राज और सिमरन थे। शाह रुख और काजोल की वह गुलाबी दुनिया, जिसे उन्हें कमल हासन - रति अग्निहोत्री (‘एक दूजे के लिए’) और अपने अधिक समकालीन आमिर खान - जूही चावला (‘कयामत से कयामत तक’) की तरह छोड़ नहीं देना था, अनपेक्षित विद्रोह नहीं करना था, बल्कि सबका दिल जीतकर एक कठोर अभिभावक से भी ‘जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी’ का संवाद और आशीर्वाद सुनना था।
पीढ़ियों के बीच का पुल

यह सुपरहिट थी और है तो इसीलिए क्योंकि ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ समाज-परिवार की सबसे बड़ी समस्या जेनरेशन गैप को भी संबोधित करती थी। एक मां (फरीदा जलाल) जो बेटी के सपनों को भी समझती है, परिवार की मर्यादा को भी और अंत में एक निर्णायक कदम उठाती है। एक पिता (अनुपम खेर), जो बेटे के साथ हंसता-खिलखिलाता है और उसकी असफलता में भी सहज रहता है। वह पिता (अमरीश पुरी) जो पत्थरदिल लगता तो है मगर बेटी का दिल न टूटने देने के लिए अंत में अपना वचन तोड़ देता है और वह युवा भी जिसके लिए प्यार और परिवार दोनों जरूरी हैं। बॉक्स आफिस पर टिकटों की गिनती तो आसान है, पर इस सोच ने कितनों की जिंदगी और उसका रास्ता बदला होगा, इसका कभी कोई हिसाब नहीं हो सकेगा।

  
जरा सा झूम लूं मैं

1995 में दीपावली से तीन दिन पहले प्रदर्शित यशराज फिल्म्स की इस प्रस्तुति ने बहुत-सी चीजें बदल दी थीं। ‘बाजीगर’, ‘डर’ से बनी शाह रुख की प्रतिनायक की छवि से लेकर अमरीश पुरी के क्रूर खलनायक के स्थापित बिंब तक को बदलने वाली इस फिल्म ने आदित्य चोपड़ा को स्वतंत्र रूप से सफल निर्देशक के रूप में स्थापित किया। सरोज खान का जादू तो पहले से गहरा हुआ ही, इसकी प्रसिद्धि में करण जौहर और फराह खान भी सिद्ध हो गए।

आदित्य चोपड़ा-जावेद सिद्दीकी के संवाद अब युवा प्रेम की अभिव्यक्ति थे तो जतिन-ललित का संगीत इसकी जादुई धुन। इसी से मनीष मल्होत्रा ड्रेस डिजाइनिंग का बड़ा नाम हुए और मंदिरा बेदी ने बड़े पर्दे का पहला स्वाद चखा। काजोल अब फिल्म की नायिका ही नहीं, फैशन आइकॉन भी थीं और शाह रुख के रूप में वह सुपरस्टार अपनी चमक बिखेर रहा था, जिसे दशकों तक दर्शकों के दिलों पर राज करना था। यश चोपड़ा ने यह सुनिश्चित कर दिया था कि अब उनके हर चाहने वाले के दिल में एक ‘मराठा मंदिर’ होगा, जहां से मुंबई के इस सिनेमा हाल की तरह यह फिल्म शायद कभी न उतर सके।

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