बिहार में इस बार एक साथ तीन पर्व, परदेश से वापस लौट रहे लोग; ट्रेन-फ्लाइट फुल

Chikheang 2025-10-13 17:06:15 views 1258
  
परदेश से वापस लौट रहे बिहारी



व्यास चंद्र, पटना। मुंबई, दिल्ली, सूरत, बेंगलुरु जैसे शहरों से बड़ी संख्या में प्रवासी अपने गांवों की ओर लौट रहे हैं। हालांकि, हर वर्ष छठ और दीपावली पर प्रवासी लौटते रहे हैं, लेकिन इस बार बात कुछ है। दरअसल, वोट डालने की दायित्व भी उनके साथ है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

इन सबसे विधानसभा चुनाव एक बार फिर मात्र राजनीतिक नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का भी केंद्र बनता दिख रहा है। गांवों और कस्बों में इन दिनों एक अनोखी चहल-पहल है। एक ओर पारंपरिक पर्वों की तैयारी जोरों पर है, तो दूसरी ओर लोकतंत्र के उत्सव की अनुभूति भी।

नोएडा की एक फैक्ट्री में प्रबंधक बेगूसराय के रोशन सिह भी घर आने वाले हैं। कहते हैं कि इस बार घर आने के दो कारण हैं, छठ और चुनाव। दोनों ही हमारे लिए त्योहार हैं। इधर कई लोग अपने गांव आ भी गए हैं। उनसे गांवों की दुकानों पर रौनक बढ़ गई है।

बाजार गुलजार हैं और चाय की दुकानों पर राजनीतिक बहस एक करवट गर्म और दूसरी करवट ठंड हो रही है। त्योहार की तैयारी के बीच लोग यह भी तय कर रहे हैं कि किसे वोट देना है। प्रवासियों के लौटने से सड़कों पर चहल-पहल है, रेलवे स्टेशन गुलजार हैं और हवाई जहाजों की सीटें फुल।

मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु, सूरत जैसे महानगरों से बड़ी संख्या में प्रवासी बिहार लौट रहे हैं, लेकिन इस बार मात्र घर के लिए नहीं, लोकतंत्र के लिए भी लौट रहे हैं। मुजफ्फरपुर के अरुणोदय कुमार हरियाणा में नौकरी करते हैं।

रोशन की तरह छठ तो साधना-अराधना का निमित्त है ही, चुनाव लोकतंत्र के लिए निर्धारित दायित्वों के निर्वहन का महापर्व है। आहुति दोनों में देनी है। बेंगलुरु की साफ्टवेयर कंपनी में डेवलपर दिव्यांशु झा मुस्कुराते हुए कहते हैं कि हम तो वोटर-पर्यटक हैं।

उद्देश्य मात्र वोट नहीं। गांव की मिट्टी, त्योहार की महक और अपनेपन की हवा भी साथ आती-जाती है। मधुबनी की श्रुति शर्मा मुंबई में इंजीनियर हैं। घर आने का कार्यक्रम तय है। कहती हैं कि इस बार वोट डालने के साथ मधुबनी पेंटिंग और गांव की हवा भी साथ ले जाऊंगी। लोकतंत्र मात्र मतदान नहीं, जुड़ाव का अनुभव भी है।
लोकतंत्र की गरिमा और संस्कृति का उत्कर्ष

इस बार चुनाव प्रचार में भी त्योहार की छाप साफ दिख रही है। कई प्रत्याशी दीपावली के आयोजन में सम्मिलित हो रहे हैं, तो कुछ छठ घाटों की सफाई में स्वयं फावड़ा उठा रहे हैं। पोस्टरों और भाषणों में ‘संस्कृति से जुड़ाव’ और ‘पर्वों की गरिमा’ जैसे शब्द आम हो गए हैं।

राजनीतिक दलों ने भी त्योहारों के इस माहौल को ध्यान में रखते हुए अपने संदेशों को भावनात्मक और सांस्कृतिक रंग दिया है। सेवानिवृत्त शिक्षक रामकेवल सिंह मानते हैं, अब प्रवासी युवक मात्र त्योहार के अतिथि नहीं, लोकतंत्र के जागरूक भागीदार भी हैं। यह वापसी मात्र भावनात्मक नहीं, राजनीतिक जागरूकता की भी प्रतीक है।

प्रो. मनोज प्रभाकर के अनुसार, यह ट्रेंड बताता है कि आज का युवा मतदाता मात्र अधिकार नहीं, जिम्मेदारी भी समझता है। साथ ही यह एक संकेत है कि चुनाव अब एक लोकतांत्रिक उत्सव बनता जा रहा है, जिसमें नारे, पोस्टर और रैलियों से आगे जाकर लोग भावनात्मक रूप से जुड़ रहे हैं।

बिहार की मिट्टी से जुड़े पर्व हमेशा सामूहिक उल्लास का प्रतीक रहे हैं। लोक-आस्था का महापर्व छठ हो या प्रकाश-पर्व दीपावली, गांव की चौपाल से लेकर शहर की गलियों तक, हर कोना जगमगाता है। इस वर्ष जब विस चुनाव का संयोग भी जुड़ गया है, तो फिर रौनक दोगुना होना है।

चाय की दुकानों पर अब केवल चीनी की मिठास ही नहीं, बहस की चुस्की भी लग रही। गांव-जवार के नुक्कड़ राजनीतिक चौपालों में तब्दील हो गए हैं, जहां छठ की सफाई से लेकर नेता की सच्चाई तक हर मुद्दे पर चर्चा हो रही है।
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